Friday, 17 May 2013

शीन काफ़ निज़ाम



1. मकानों के थे या ज़मानों के थे

मकानों के थे या ज़मानों के थे
अजब फ़ासले दर्मियानों के थे

सफ़र यूँ तो सब आसमानों के थे
क़रीने मगर क़ैदखानों के थे

थे वहमों के कुछ-कुछ गुमानों के थे
सभी अपने-अपने ठिकानों के थे

खुली आँख तो सामने कुछ  था
वो मंज़र तो सारे उड़ानों के थे

मुसाफ़िर की नज़रें बुलंदी थीं
मगर रास्ते सब ढलानों के थे

उफ़ुक़ ज़ेरे पाथा फ़लक सरनगूं
तिलिस्मात कैसे तकानों के थे

पकड़ना उन्हें कुछ ज़रूरी  था
परिंदे सभी आशियानों के थे

उन्हें ढूँढने तुम कहाँ चल दिए
वो किरदार तो दास्तानों के थे

बर्फ़ है रात, मगर यार पिघलती ही नहीं

बर्फ़ है रात मगर यार पिघलती ही नहीं
जम गई ज़ेह्न में ऐसी कि निकलती ही नहीं

उम्र की तह से जाएँ तो पलटती ही नहीं
एक ही रुख़ पे हैं वो चाल बदलती ही नहीं

ग़ुस्ल कर जाती है चुपचाप मिरी आँखों में
राह में ख़ार उगे हैं अटकती ही नहीं

अब उजालों पे अंधेरों के गुमाँ होता है
रात तो राह किसी तौर भटकती ही नहीं

शामशमशान-सी वीरान हैजाने कब से
और समझाऊँ सहर को तो समझती ही नहीं

और कुछ देर यूँ ही शोर मचाए रखिए

और कुछ देर यूँ ही शोर मचाए रखिए
आसमाँ है तो उसे सर पर उठाये रखिए

उँगलियाँ गर नहीं उट्ठे तो  उट्ठे लेकिन
कम से कम उसकी तरफ आँख उठाए रखिए

बारिशें आती हैं तूफ़ान गुज़र जाते हैं
कोहसारों[1] की तरह पाँव जमाए रखिए

खिड़कियाँ रात को छोड़ा  करें आप खुलीं
घर की है बात तो घर में ही छिपाए रखिए

अब तो अक़्सर नज़र  जाता है दिल आँखों में
मैं  कहता था कि पानी है दबाए रखिए

कौन जाने कि वो कब राह इधर भूल पड़े
अपनी उम्मीद की शमा को जलाये रखिए

कब से दरवाज़ों को दहलीज़ तरसती है 'निज़ाम'
कब तलक गाल को कोहनी पे टिकाये रखिए

तुम्हें भी शहर के चौराहे पर सजा देंगे

तुम्हें भी शहर के चौराहे पर सजा देंगे 
तुम्हारे नाम का पत्थर कहीं लगा देंगे 

कुछ और पास नहीं तो किसी को क्या देंगे 
किसी ने आग लगा दी तो वो हवा देंगे 

ये और बात कि वो उसकी क्या सज़ा देंगे
ज़माने वालों को हम आईना दिखा देंगे 

बिछड़ते वक़्त किसी से ये जी में सोचा था 
भुलाना चाहा तो सौ तरह से भुला देंगे 

किताब-ए-ज़ीस्त के ओराक़ जल नहीं सकते 
ये माना मेज़ से तस्वीर तो हटा देंगे 

कहाँ से आये हो लेकर ये ख़ाक-ख़ाक बदन 
किसी ने पूछ लिया तो जवाब क्या देंगे 

उसी के साए में पलती है न ये दर्द की बेल 
उजाड़ उम्र की दीवार ही गिरा देंगे 

जुदाईयों के हैं जंगल में ज़ात के राही 
ये वहम दिल में कि हम फ़ासले मिटा देंगे

ग़म की नदी में उम्र का पानी ठहरा-ठहरा लगता है

ग़म की नदी में उम्र का पानी ठहरा-ठहरा लगता है 
ये फ़िक़रा झूठा है लेकिन कितना सच्चा लगता है 

जीत के जज़्बे ने क्या जाने कैसा रिश्ता जोड़ दिया 
जानी दुश्मन भी मुझ को अब मेरा अपना लगता है 

पापा-पापा कह कर मेरे पास नहीं आया कोई 
आज नहीं है वो तो घर भी सहमा सहमा लगता है 

चार पलों या चार दिनों में होगा वो महदूद मगर 
उम्र के घर में ज़ीस्त का आँगन फैला-फैला लगता है 

इस बस्ती की बात न पूछो इस बस्ती का क़ातिल भी 
सीधा-सादा भोला-भाला प्यारा-प्यारा लगता है 

दरवाज़े तक छोड़ने मुझ को आज नहीं आया कोई 
बस इतनी सी बात है लेकिन जाने कैसा लगता है

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