Friday 17 May 2013

गुलज़ार

कुछ त्रिवेनिया 
उड़ के जाते हुए पंछी ने बस इतना ही देखा
देर तक हाथ हिलती रही वह शाख़ फ़िज़ा में
अलविदा कहने को ? या पास बुलाने के लिए ?

क्या पता कब कहाँ मारेगी ?
बस कि मैं ज़िंदगी से डरता हूँ
मौत का क्या है, एक बार मारेगी


सब पे आती है सब की बारी से
मौत मुंसिफ़ है कम-ओ-बेश नहीं
ज़िंदगी सब पे क्यों नहीं आती ?


कौन खायेगा ? किसका हिस्सा है
दाने-दाने पे नाम लिख्खा है
  सेठ सूद चंद, मूल चंद जेठा


भीगा-भीगा सा क्यों है अख़बार
अपने हॉकर को कल से चेंज करो
"पांच सौ गाँव बह गए इस साल"


चौदहवें चाँद को फिर आग लगी है देखो
फिर बहुत देर तलक आज उजाला होगा
राख हो जाएगा जब फिर से अमावस होगी


गोले, बारूद, आग, बम, नारे
बाज़ी आतिश की शहर में गर्म है
बंध खोलो कि आज सब "बंद" है

रात के पेड़ पे कल ही तो उसे देखा था -
चाँद बस गिरने ही वाला था फ़लक से पक कर
सूरज आया था, ज़रा उसकी तलाशी लेना


मां ने जिस चांद सी दुल्हन की दुआ दी थी मुझे
आज की रात वह फ़ुटपाथ से देखा मैंने
रात भर रोटी नज़र आया है वो चांद मुझे


सारा दिन बैठा,मैं हाथ में लेकर खा़ली कासा(भिक्षापात्र)
रात जो गुज़री,चांद की कौड़ी डाल गई उसमें
सूदखो़र सूरज कल मुझसे ये भी ले जायेगा।


सामने आये मेरे,देखा मुझे,बात भी की
मुस्कराए भी,पुरानी किसी पहचान की ख़ातिर
कल का अख़बार था,बस देख लिया,रख भी दिया।


शोला सा गुज़रता है मेरे जिस्म से होकर
किस लौ से उतारा है खुदावंद ने तुम को
तिनकों का मेरा घर है,कभी आओ तो क्या हो?


ज़मीं भी उसकी,ज़मी की नेमतें उसकी
ये सब उसी का है,घर भी,ये घर के बंदे भी
खुदा से कहिये,कभी वो भी अपने घर आयें!

लोग मेलों में भी गुम हो कर मिले हैं बारहा
दास्तानों के किसी दिलचस्प से इक मोड़ पर
यूँ हमेशा के लिये भी क्या बिछड़ता है कोई?


आप की खा़तिर अगर हम लूट भी लें आसमाँ
क्या मिलेगा चंद चमकीले से शीशे तोड़ के!
चाँद चुभ जायेगा उंगली में तो खू़न आ जायेगा


पौ फूटी है और किरणों से काँच बजे हैं
घर जाने का वक्‍़त हुआ है,पाँच बजे हैं
सारी शब घड़ियाल ने चौकीदारी की है!


बे लगाम उड़ती हैं कुछ ख्‍़वाहिशें ऐसे दिल में
‘मेक्सीकन’ फ़िल्मों में कुछ दौड़ते घोड़े जैसे।
थान पर बाँधी नहीं जातीं सभी ख्‍़वाहिशें मुझ से।


तमाम सफ़हे किताबों के फड़फडा़ने लगे
हवा धकेल के दरवाजा़ आ गई घर में!
कभी हवा की तरह तुम भी आया जाया करो!!


कभी कभी बाजा़र में यूँ भी हो जाता है
क़ीमत ठीक थी,जेब में इतने दाम नहीं थे
ऐसे ही इक बार मैं तुम को हार आया था।


वह मेरे साथ ही था दूर तक मगर इक दिन
जो मुड़ के देखा तो वह दोस्त मेरे साथ न था
फटी हो जेब तो कुछ सिक्के खो भी जाते हैं।


वह जिस साँस का रिश्ता बंधा हुआ था मेरा
दबा के दाँत तले साँस काट दी उसने
कटी पतंग का मांझा मुहल्ले भर में लुटा!


कुछ मेरे यार थे रहते थे मेरे साथ हमेशा
कोई साथ आया था,उन्हें ले गया,फिर नहीं लौटे
शेल्फ़ से निकली किताबों की जगह ख़ाली पड़ी है!


इतनी लम्बी अंगड़ाई ली लड़की ने
शोले जैसे सूरज पर जा हाथ लगा
छाले जैसा चांद पडा़ है उंगली पर!


बुड़ बुड़ करते लफ्‍़ज़ों को चिमटी से पकड़ो
फेंको और मसल दो पैर की ऐड़ी से ।
अफ़वाहों को खूँ पीने की आदत है।


चूड़ी के टुकड़े थे,पैर में चुभते ही खूँ बह निकला
नंगे पाँव खेल रहा था,लड़का अपने आँगन में
बाप ने कल दारू पी के माँ की बाँह मरोड़ी थी!


चाँद के माथे पर बचपन की चोट के दाग़ नज़र आते हैं
रोड़े, पत्थर और गु़ल्लों से दिन भर खेला करता था
बहुत कहा आवारा उल्काओं की संगत ठीक नहीं!


कोई सूरत भी मुझे पूरी नज़र आती नहीं
आँख के शीशे मेरे चुटख़े हुये हैं कब से
टुकड़ों टुकड़ों में सभी लोग मिले हैं मुझ को!


कोने वाली सीट पे अब दो और ही कोई बैठते हैं
पिछले चन्द महीनों से अब वो भी लड़ते रहते हैं
क्लर्क हैं दोनों,लगता है अब शादी करने वाले हैं


कुछ इस तरह ख्‍़याल तेरा जल उठा कि बस
जैसे दीया-सलाई जली हो अँधेरे में
अब फूंक भी दो,वरना ये उंगली जलाएगा!


कांटे वाली तार पे किसने गीले कपड़े टांगे हैं
ख़ून टपकता रहता है और नाली में बह जाता है
क्यों इस फौ़जी की बेवा हर रोज़ ये वर्दी धोती है।


आओ ज़बानें बाँट लें अब अपनी अपनी हम
न तुम सुनोगे बात, ना हमको समझना है।
दो अनपढ़ों कि कितनी मोहब्बत है अदब से


नाप के वक्‍़त भरा जाता है ,रेत घड़ी में-
इक तरफ़ खा़ली हो जबफिर से उलट देते हैं उसको
उम्र जब ख़त्म हो ,क्या मुझ को वो उल्टा नहीं सकता?


तुम्हारे होंठ बहुत खु़श्क खु़श्क रहते हैं
इन्हीं लबों पे कभी ताज़ा शे’र मिलते थे
ये तुमने होंठों पे अफसाने रख लिये कब से?

वक़्त को आते न जाते न गुजरते देखा
न उतरते हुए देखा कभी इलहाम की सूरत
जमा होते हुए एक जगह मगर देखा है

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शायद आया था वो ख़्वाब से दबे पांव ही
और जब आया ख़्यालों को एहसास न था
आँख का रंग तुलु होते हुए देखा जिस दिन
मैंने चूमा था मगर वक़्त को पहचाना न था

चंद तुतलाते हुए बोलों में आहट सुनी
दूध का दांत गिरा था तो भी वहां देखा
बोस्की बेटी मेरी ,चिकनी-सी रेशम की डली
लिपटी लिपटाई हुई रेशम के तागों में पड़ी थी
मुझे एहसास ही नहीं था कि वहां वक़्त पड़ा है
पालना खोल के जब मैंने उतारा था उसे बिस्तर पर
लोरी के बोलों से एक बार छुआ था उसको
बढ़ते नाखूनों में हर बार तराशा भी था

चूड़ियाँ चढ़ती-उतरती थीं कलाई पे मुसलसल
और हाथों से उतरती कभी चढ़ती थी किताबें
मुझको मालूम नहीं था कि वहां वक़्त लिखा है

वक़्त को आते न जाते न गुज़रते देखा
जमा होते हुए देखा मगर उसको मैंने
इस बरस बोस्की अठारह बरस की होगी
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हिंदुस्तान में दो दो हिंदुस्तान दिखाई देते हैं


एक है जिसका सर नवें बादल में है
दूसरा जिसका सर अभी दलदल में है

एक है जो सतरंगी थाम के उठता है
दूसरा पैर उठाता है तो रुकता है

फिरका-परस्ती तौहम परस्ती और गरीबी रेखा
एक है दौड़ लगाने को तय्यार खडा है

‘अग्नि’ पर रख पर पांव उड़ जाने को तय्यार खडा है
हिंदुस्तान उम्मीद से है!

आधी सदी तक उठ उठ कर हमने आकाश को पोंछा है
सूरज से गिरती गर्द को छान के धूप चुनी है

साठ साल आजादी के…हिंदुस्तान अपने इतिहास के मोड़ पर है
अगला मोड़ और ‘मार्स’ पर पांव रखा होगा!!

हिन्दोस्तान उम्मीद से है..

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हाथ छूटे भी तो रिश्ते नहीं छोड़ा करते
वक़्त की शाख़ से लम्हें नहीं तोड़ा करते

जिस की आवाज़ में सिलवट हो निगाहों में शिकन
ऐसी तस्वीर के टुकड़े नहीं जोड़ा करते

शहद जीने का मिला करता है थोड़ा थोड़ा
जाने वालों के लिये दिल नहीं थोड़ा करते

तूने आवाज़ नहीं दी कभी मुड़कर वरना
हम कई सदियाँ तुझे घूम के देखा करते

लग के साहिल से जो बहता है उसे बहने दो
ऐसी दरिया का कभी रुख़ नहीं मोड़ा करते
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कुरान हाथों में लेके नाबीना एक नमाज़ी

लबों पे रखता था
दोनों आँखों से चूमता था
झुकाके पेशानी यूँ अक़ीदत से छू रहा था
जो आयतं पढ़ नहीं सका
उन के लम्स महसूस कर रहा हो


मैं हैराँ-हैराँ गुज़र गया था
मैं हैराँ हैराँ ठहर गया हूँ


तुम्हारे हाथों को चूम कर
छू के अपनी आँखों से आज मैं ने
जो आयतें पड़ नहीं सका
उन के लम्स महसूस कर लिये हैं
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याद है इक दिन
मेरी मेज़ पे बैठे-बैठे
सिगरेट की डिबिया पर तुमने
एक स्केच बनाया था
आकर देखो
उस पौधे पर फूल आया है !

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सितारे लटके हुए हैं तागों से आस्माँ पर
चमकती चिंगारियाँ-सी चकरा रहीं आँखों की पुतलियों में
नज़र पे चिपके हुए हैं कुछ चिकने-चिकने से रोशनी के धब्बे
जो पलकें मुँदूँ तो चुभने लगती हैं रोशनी की सफ़ेद किरचें

मुझे मेरे मखमली अंधेरों की गोद में डाल दो उठाकर
चटकती आँखों पे घुप अंधेरों के फाये रख दो
यह रोशनी का उबलता लावा न अन्धा कर दे।



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मौत तू एक कविता है,
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको

डूबती नब्ज़ों में जब दर्द को नींद आने लगे
ज़र्द सा चेहरा लिये जब चांद उफक तक पहुचे
दिन अभी पानी में हो, रात किनारे के करीब
ना अंधेरा ना उजाला हो, ना अभी रात ना दिन

जिस्म जब ख़त्म हो और रूह को जब साँस आऐ
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको
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मैं अपने घर में ही अजनबी हो गया हूँ आ कर
मुझे यहाँ देखकर मेरी रूह डर गई है
सहम के सब आरज़ुएँ कोनों में जा छुपी हैं
लवें बुझा दी हैंअपने चेहरों की, हसरतों ने
कि शौक़ पहचनता ही नहीं
मुरादें दहलीज़ ही पे सर रख के मर गई हैं

मैं किस वतन की तलाश में यूँ चला था घर से
कि अपने घर में भी अजनबी हो गया हूँ आ कर
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खड़खड़ाता हुआ निकला है उफ़क से सूरज
जैसे कीचड़ में फँसा पहिया ढकेला किसी ने
चब्बे-टब्बे-से किनारों पर नज़र आते हैं
रोज़-सा गोल नहीं
उधड़े-उधड़े-से उजाले हैं बदन पर
और चेहरे पर खरोंचे के निशान हैं
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रात भर सर्द हवा चलती रही
रात भर हमने अलाव तापा
मैंने माजी से कई खुश्क सी शाखें काटीं
तुमने भी गुजरे हुये लम्हों के पत्ते तोड़े
मैंने जेबों से निकालीं सभी सूखीं नज़्में
तुमने भी हाथों से मुरझाये हुये खत खोलें
अपनी इन आंखों से मैंने कई मांजे तोड़े
और हाथों से कई बासी लकीरें फेंकी
तुमने पलकों पे नामी सूख गयी थी, सो गिरा दी |

रात भर जो भी मिला उगते बदन पर हमको
काट के दाल दिया जलाते अलावों मसं उसे
रात भर फून्कों से हर लोऊ को जगाये रखा
और दो जिस्मों के ईंधन को जलाए रखा
रात भर बुझते हुए रिश्ते को तापा हमने |


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रिश्ते बस रिश्ते होते हैं
कुछ इक पल के
कुछ दो पल के

कुछ परों से हल्के होते हैं
बरसों के तले चलते-चलते
भारी-भरकम हो जाते हैं

कुछ भारी-भरकम बर्फ़ के-से
बरसों के तले गलते-गलते
हलके-फुलके हो जाते हैं

नाम होते हैं रिश्तों के
कुछ रिश्ते नाम के होते हैं
रिश्ता वह अगर मर जाये भी
बस नाम से जीना होता है

बस नाम से जीना होता है
रिश्ते बस रिश्ते होते हैं

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वो ख़त के पुरज़े उड़ा रहा था
हवाओं का रुख़ दिखा रहा था

कुछ और भी हो गया नुमायाँ
मैं अपना लिखा मिटा रहा था

उसी का इमान बदल गया है
कभी जो मेरा ख़ुदा रहा था

वो एक दिन एक अजनबी को
मेरी कहानी सुना रहा था

वो उम्र कम कर रहा था मेरी
मैं साल अपने बढ़ा रहा था

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दूर सुनसान-से साहिल के क़रीब
एक जवाँ पेड़ के पास
उम्र के दर्द लिए वक़्त मटियाला दोशाला ओढ़े

बूढ़ा-सा पाम का इक पेड़, खड़ा है कब से
सैकड़ों सालों की तन्हाई के बद
झुक के कहता है जवाँ पेड़ से... ’यार!

तन्हाई है ! कुछ बात करो !’
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कोई मेला लगा है परबत पर
सब्ज़ाज़ारों पर चढ़ रहे हैं लोग
टोलियाँ कुछ रुकी हुईं ढलानों पर
दाग़ लगते हैं इक पके फल पर
दूर सीवन उधेड़ती-चढ़ती,
एक पगडंडी बढ़ रही है सब्ज़े पर !
चूंटियाँ लग गई हैं इस पहाड़ी को
जैसे अमरूद सड़ रहा है कोई !
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वक़्त को आते न जाते न गुजरते देखा
न उतरते हुए देखा कभी इलहाम की सूरत
जमा होते हुए एक जगह मगर देखा है

शायद आया था वो ख़्वाब से दबे पांव ही
और जब आया ख़्यालों को एहसास न था
आँख का रंग तुलु होते हुए देखा जिस दिन
मैंने चूमा था मगर वक़्त को पहचाना न था

चंद तुतलाते हुए बोलों में आहट सुनी
दूध का दांत गिरा था तो भी वहां देखा
बोस्की बेटी मेरी ,चिकनी-सी रेशम की डली
लिपटी लिपटाई हुई रेशम के तागों में पड़ी थी
मुझे एहसास ही नहीं था कि वहां वक़्त पड़ा है
पालना खोल के जब मैंने उतारा था उसे बिस्तर पर
लोरी के बोलों से एक बार छुआ था उसको
बढ़ते नाखूनों में हर बार तराशा भी था

चूड़ियाँ चढ़ती-उतरती थीं कलाई पे मुसलसल
और हाथों से उतरती कभी चढ़ती थी किताबें
मुझको मालूम नहीं था कि वहां वक़्त लिखा है

वक़्त को आते न जाते न गुज़रते देखा
जमा होते हुए देखा मगर उसको मैंने
इस बरस बोस्की अठारह बरस की होगी

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तारपीन तेल में कुछ घोली हुई धूप की डलियाँ
मैंने कैनवास में बिख़ेरी थीं मगर
क्या करूँ लोगों को उस धूप में रंग दिखते ही नहीं!
मुझसे कहता था थियो चर्च की सर्विस कर लूँ
और उस गिरजे की ख़िदमत में गुजारूँ
मैं शबोरोज जहाँ-
रात को साया समझते हैं सभी,
दिन को सराबों का सफ़र!
उनको माद्दे की हक़ीकत तो नज़र आती नहीं
मेरी तस्वीरों को कहते हैं, तख़य्युल है
ये सब वाहमा हैं!
मेरे कैनवास पे बने पेड़ की तफ़सील तो देखो
मेरी तख़लीक ख़ुदाबंद के उस पेड़ से
कुछ कम तो नहीं है!
उसने तो बीज को एक हुक्म दिया था शायद,
पेड़ उस बीज की ही कोख में था,
और नुमायाँ भी हुआ
जब कोई टहनी झुकी, पत्ता गिरा, रंग अगर ज़र्द हुआ
उस मुसव्विर ने कहीं दख़ल दिया था,
जो हुआ, सो हुआ-
मैंने हर शाख़ पे, पत्तों के रंग-रूप पे मेहनत की है,
उस हक़ीकत को बयाँ करने में
जो हुस्ने हक़ीकत है असल में
उन दरख़्तों का ये संभला हुआ क़द तो देखो
कैसे ख़ुद्दार हैं ये पेड़, मगर कोई भी मग़रूर नहीं
इनको शेरों की तरह किया मैंने किया है मौजूँ!
देखो तांबे की तरह कैसे दहकते हैं ख़िजां के पत्ते,

कोयला खदानों में झौंके हुए मज़दूरों की शक्लें
लालटेनें हैं, जो शब देर तलक जलतीं रहीं
आलुओं पर जो गुज़र करते हैं कुछ लोग-पोटेटो ईटर्स
एक बत्ती के तले, एक ही हाले में बंधे लगते हैं सारे!

मैंने देखा था हवा खेतों से जब भाग रही थी
अपने कैनवास पे उसे रोक लिया-
रोलां वह चिट्ठीरसां
और वो स्कूल में पढ़ता लड़का
ज़र्द खातून पड़ोसन थी मेरी-
फ़ानी लोगों को तगय्यर से बचा कर उन्हें
कैनवास पे तवारीख़ की उम्रें दी हैं!

सालहा साल ये तस्वीरें बनाई मैंने
मेरे नक्काद मगर बोल नहीं-
उनकी ख़ामोशी खटकती थी मेरे कानों में,
उस पे तस्वीर बनाते हुए इक कव्वे की वह चीख़-पुकार
कव्वा खिड़की पे नहीं, सीधा मेरे कान पे आ बैठता था,
कान ही काट दिया है मैंने!

मेरे पैलेट पे रखी धूप तो अब सूख चुकी है,
तारपीन तेल में जो घोला था सूरज मैंने,
आसमाँ उसका बिछाने के लिए-
चंद बालिश्त का कैनवास भी मेरे पास नहीं है!

मैं यहाँ रेमी में हूं
सेंटरेमी के दवाख़ाने में थोड़ी-सी
मरम्मत के लिए भर्ती हुआ हूँ!
उनका कहना है कई पुर्जे मेरे जहन के अब ठीक नहीं हैं-

मुझे लगता है वो पहले से सवातेज हैं अब!

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वो जो शायर था चुप सा रहता था
बहकी-बहकी सी बातें करता था
आँखें कानों पे रख के सुनता था
गूँगी खामोशियों की आवाज़ें!
जमा करता था चाँद के साए
और गीली सी नूर की बूँदें
रूखे-रूखे से रात के पत्ते
ओक में भर के खरखराता था
वक़्त के इस घनेरे जंगल में
कच्चे-पक्के से लम्हे चुनता था
हाँ वही, वो अजीब सा शायर
रात को उठ के कोहनियों के बल
चाँद की ठोड़ी चूमा करता था

चाँद से गिर के मर गया है वो
लोग कहते हैं ख़ुदकुशी की है |

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शाम से आँख में नमी सी है
आज फिर आप की कमी सी है

दफ़्न कर दो हमें कि साँस मिले
नब्ज़ कुछ देर से थमी सी है

वक़्त रहता नहीं कहीं छुपकर
इस की आदत भी आदमी सी है

कोई रिश्ता नहीं रहा फिर भी
एक तस्लीम लाज़मी सी है



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साँस लेना भी कैसी आदत है
जीये जाना भी क्या रवायत है
कोई आहट नहीं बदन में कहीं
कोई साया नहीं है आँखों में
पाँव बेहिस हैं, चलते जाते हैं
इक सफ़र है जो बहता रहता है
कितने बरसों से, कितनी सदियों से
जिये जाते हैं, जिये जाते हैं

आदतें भी अजीब होती हैं

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दिन कुछ ऐसे गुज़ारता है कोई
जैसे एहसान उतारता है कोई

आईना देख के तसल्ली हुई
हम को इस घर में जानता है कोई

पक गया है शज़र पे फल शायद
फिर से पत्थर उछलता है कोई

फिर नज़र में लहू के छींटे हैं
तुम को शायद मुघालता है कोई

देर से गूँजतें हैं सन्नाटे
जैसे हम को पुकारता है कोई



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नज़्म उलझी हुई है सीने में
मिसरे अटके हुए हैं होठों पर
उड़ते-फिरते हैं तितलियों की तरह
लफ़्ज़ काग़ज़ पे बैठते ही नहीं
कब से बैठा हुआ हूँ मैं जानम
सादे काग़ज़ पे लिखके नाम तेरा

बस तेरा नाम ही मुकम्मल है
इससे बेहतर भी नज़्म क्या होगी

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रात कल गहरी नींद में थी जब
एक ताज़ा-सफ़ेद कैनवस पर
आतिशीं, लाल -सुर्ख रंगों से
मैं ने रौशन किया था इक सूरज-
सुबह तक जल गया था वह कैनवस
राख बिखरी हुई थी कमरे में
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’जोरहट’ में एक दफ़ा
दूर उफ़क के हलके-हलके कुहरे में
’हमीन बरुआ’ के चाय बाग़ान के पीछे
चांद कुछ ऎसे दिखा था
जैसे चीनी की चमकीली कैटल रखी हो!

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बर्फ़ पिघलेगी जब पहाड़ों से
और वादी से कोहरा सिमटेगा
बीज अंगड़ाई लेके जागेंगे
अपनी अलसाई आँखें खोलेंगे
सब्ज़ा बह निकलेगा ढलानों पर

गौर से देखना बहारों में
पिछले मौसम के भी निशाँ होंगे
कोंपलों की उदास आँखों में
आँसुओं की नमी बची होगी।

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अकसर तुझको देखा है कि ताना बुनते
जब कोई तागा टूट गया या खत्म हुआ
फिर से बांध के
और सिरा कोई जोड़ के उसमे
आगे बुनने लगते हो
तेरे इस ताने में लेकिन
इक भी गांठ गिरह बुन्तर की
देख नहीं सकता कोई
मैनें तो एक बार बुना था एक ही रिश्ता
लेकिन उसकी सारी गिराहें
साफ नजर आती हैं मेरे यार जुलाहे


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जिहाल-ए-मिस्कीं मुकों बा-रंजिश, बहार-ए-हिजरा बेचारा दिल है,
सुनाई देती हैं जिसकी धड़कन, तुम्हारा दिल या हमारा दिल है।

वो आके पेहलू में ऐसे बैठे, के शाम रंगीन हो गयी हैं,
ज़रा ज़रा सी खिली तबियत, ज़रा सी ग़मगीन हो गयी हैं।

कभी कभी शाम ऐसे ढलती है जैसे घूंघट उतर रहा है,
तुम्हारे सीने से उठता धुवा हमारे दिल से गुज़र रहा है।

ये शर्म है या हया है, क्या है, नज़र उठाते ही झुक गयी है,
तुम्हारी पलकों से गिरती शबनम हमारी आंखों में रुक् गयी है।

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ज़िंदगी यूँ हुई बसर तन्हा
क़ाफिला साथ और सफर तन्हा

अपने साये से चौंक जाते हैं
उम्र गुज़री है इस कदर तन्हा

रात भर बोलते हैं सन्नाटे
रात काटे कोई किधर तन्हा

दिन गुज़रता नहीं है लोगों में
रात होती नहीं बसर तन्हा

हमने दरवाज़े तक तो देखा था
फिर न जाने गए किधर तन्हा

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ज़ुबान पर ज़ाएका आता था जो सफ़हे पलटने का
अब उँगली ‘क्लिक’ करने से बस इक
झपकी गुज़रती है
बहुत कुछ तह-ब-तह खुलता चला जाता है परदे पर
किताबों से जो जाती राब्ता था, कट गया है
कभी सीने पे रख के लेट जाते थे

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चलो ना भटके
लफ़ंगे कूचों में
लुच्ची गलियों के
चौक देखें
सुना है वो लोग
चूस कर जिन को वक़्त ने
रास्तें में फेंका थ
सब यहीं आके बस गये हैं
ये छिलके हैं ज़िन्दगी के
इन का अर्क निकालो
कि ज़हर इन का
तुम्हरे जिस्मों में
ज़हर पलते हैं
और जितने वो मार देगा
चलो ना भटके
लफ़ंगे कूचों में

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ख़ुमानी, अख़रोट बहुत दिन पास रहे थे
दोनों के जब अक़्स पड़ा करते थे बहते दरिया में,
पेड़ों की पोशाकें छोड़के,
नंग-धड़ंग दोनों दिन भर पानी में तैरा करते थे
कभी-कभी तो पार का छोर भी छू आते थे

ख़ुमानी मोटी थी और अख़रोट का क़द कुछ ऊँचा था
भँवर कोई पीछे पड़ जाए, तो पत्थर की आड़ से होकर,
अख़रोट का हाथ पकड़ क्के वापस भाग आती थी।

अख़रोट बहुत समझाता था,
"देख ख़ुमानी, भँवर के चक्कर में मत पड़ना,
पाँव तले की मिट्टी खेंच लिया करता है।"

इक शाम बहुत पानी आया तुग़यानी का,
और एक भँवर...
ख़ुमानी को पाँव से उठाकर, तुग़यानी में कूद गया।

अख़रोट अब भी उस जानिब देखा करता है,
जिस जानिब दरिया बहता है।
अख़रोट का क़द कुछ सहम गया है
उसका अक़्स नहीं पड़ता अब पानी में!

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किस क़दर सीधा सहल साफ़ है यह रस्ता देखो
न किसी शाख़ का साया है, न दीवार की टेक
न किसी आँख की आहट, न किसी चेहरे का शोर
न कोई दाग़ जहाँ बैठ के सुस्ताए कोई
दूर तक कोई नहीं, कोई नहीं, कोई नहीं

चन्द क़दमों के निशाँ, हाँ, कभी मिलते हैं कहीं
साथ चलते हैं जो कुछ दूर फ़क़त चन्द क़दम
और फिर टूट के गिरते हैं यह कहते हुए
अपनी तनहाई लिये आप चलो, तन्हा, अकेले
साथ आए जो यहाँ, कोई नहीं, कोई नहीं
किस क़दर सीधा, सहल साफ़ है यह रस्ता


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कुछ
खो दिया है
पाइके

कुछ
पा लिया
गवाइके।

कहाँ
ले चला है
मनवा

मोहे
बाँवरी
बनाइके।



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किताबों से जो ज़ाती राब्ता था, कट गया है
कभी सीने पर रखकर लेट जाते थे
कभी गोदी में लेते थे
कभी घुटनों को अपने रिहल की सूरत बनाकर
नीम सजदे में पढ़ा करते थे, छूते थे जबीं से
वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा बाद में भी
मगर वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल
और महके हुए रुक्के
किताबें मँगाने, गिरने उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे
उनका क्या होगा
वो शायद अब नही होंगे !!


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एक शरीर में कितने दो हैं,
गिन कर देखो जितने दो हैं।

देखने वाली आँखें दो हैं,
उनके ऊपर भवें भी दो हैं,
सूँघते हैं ख़ुश्बू को जिससे
नाक एक है, नथुने दो हैं।

भाषाएँ हैं सैकड़ों लेकिन,
बोलने वाले होंठ तो दो हैं,
लाखों आवाज़ें सुनते हैं,
सुनने वाले कान तो दो हैं।

कान भी दो, होंठ भी दो हैं,
दाएँ, बाएँ, कन्धे दो हैं,
दो बाहें, दो कोहनियाँ उनकी,
हाथ भी दो, अँगूठे दो हैं
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एक पुराना मौसम लौटा याद भरी पुरवाई भी
ऐसा तो कम ही होता है वो भी हो तनहाई भी

यादों की बौछारों से जब पलकें भीगने लगती हैं
कितनी सौंधी लगती है तब माँझी की रुसवाई भी

दो दो शक़्लें दिखती हैं इस बहके से आईने में
मेरे साथ चला आया है आप का इक सौदाई भी

ख़ामोशी का हासिल भी इक लम्बी सी ख़ामोशी है
उन की बात सुनी भी हमने अपनी बात सुनाई भी


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जब भी यह दिल उदास होता है
जाने कौन आस-पास होता है

होंठ चुपचाप बोलते हों जब
सांस कुछ तेज़-तेज़ चलती हो
आंखें जब दे रही हों आवाज़ें
ठंडी आहों में सांस जलती हो

आँख में तैरती हैं तसवीरें
तेरा चेहरा तेरा ख़याल लिए
आईना देखता है जब मुझको
एक मासूम सा सवाल लिए

कोई वादा नहीं किया लेकिन
क्यों तेरा इंतजार रहता है
बेवजह जब क़रार मिल जाए
दिल बड़ा बेकरार रहता है

जब भी यह दिल उदास होता है
जाने कौन आस-पास होता है
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हाल-चाल ठीक-ठाक है
सब कुछ ठीक-ठाक है
बी.ए. किया है, एम.ए. किया
लगता है वह भी ऐंवे किया
काम नहीं है वरना यहाँ
आपकी दुआ से सब ठीक-ठाक है

आबो-हवा देश की बहुत साफ़ है
क़ायदा है, क़ानून है, इंसाफ़ है
अल्लाह-मियाँ जाने कोई जिए या मरे
आदमी को खून-वून सब माफ़ है

और क्या कहूं?
छोटी-मोटी चोरी, रिश्वतखोरी
देती है अपा गुजारा यहाँ
आपकी दुआ से बाक़ी ठीक-ठाक है

गोल-मोल रोटी का पहिया चला
पीछे-पीछे चाँदी का रुपैया चला
रोटी को बेचारी को चील ले गई
चाँदी ले के मुँह काला कौवा चला

और क्या कहूं?
मौत का तमाशा, चला है बेतहाशा
जीने की फुरसत नहीं है यहाँ
आपकी दुआ से बाक़ी ठीक-ठाक है
हाल-चाल ठीक-ठाक है

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अ-आ, इ-ई, अ-आ, इ-ई
मास्टर जी की आ गई चिट्ठी
चिट्ठी में से निकली बिल्ली
बिल्ली खाए जर्दा-पान
काला चश्मा पीले कान
कान में झुमका, नाक में बत्ती
हाथ में जलती अगरबत्ती
अगर हो बत्ती कछुआ छाप
आग में बैठा पानी ताप
ताप चढ़े तो कम्बल तान
वी.आई.पी. अंडरवियर-बनियान

अ-आ, इ-ई, अ-आ, इ-ई
मास्टर जी की आ गई चिट्ठी
चिट्ठी में से निकला मच्छर
मच्छर की दो लंबी मूँछें
मूँछ पे बाँधे दो-दो पत्थर
पत्थर पे इक आम का झाड़
पूंछ पे लेके चले पहाड़
पहाड़ पे बैठा बूढ़ा जोगी
जोगी की इक जोगन होगी
- गठरी में लागा चोर
मुसाफिर देख चाँद की ओर

पहाड़ पै बैठा बूढ़ा जोगी
जोगी की एक जोगन होगी
जोगन कूटे कच्चा धान
वी.आई.पी. अंडरवियर बनियान

अ-आ, इ-ई, अ-आ, इ-ई
मास्टर जी की आ गई चिट्ठी
चिट्ठी में से निकला चीता
थोड़ा काला थोड़ा पीला
चीता निकला है शर्मीला
घूँघट डालके चलता है
मांग में सेंदुर भरता है
माथे रोज लगाए बिंदी
इंगलिश बोले मतलब हिंदी
‘इफ’ अगर ‘इज’ है, ‘बट’ पर
‘व्हॉट’ माने क्या
इंगलिश में अलजेब्रा छान
वी.आई.पी. अंडरवियर-बनियान

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अफ़साने 

खुशबू जैसे लोग मिले अफ़साने में
एक पुराना खत खोला अनजाने में
जाना किसका ज़िक्र है इस अफ़साने में
दर्द मज़े लेता है जो दुहराने में
शाम के साये बालिस्तों से नापे हैं
चाँद ने कितनी देर लगा दी आने में
रात गुज़रते शायद थोड़ा वक्त लगे
ज़रा सी धूप दे उन्हें मेरे पैमाने में
दिल पर दस्तक देने ये कौन आया है
किसकी आहट सुनता है वीराने मे ।

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अभी न पर्दा गिराओठहरोकि दास्ताँ आगे और भी है 

अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो, कि दास्ताँ आगे और भी है
अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो!
अभी तो टूटी है कच्ची मिट्टी, अभी तो बस जिस्म ही गिरे हैं
अभी तो किरदार ही बुझे हैं।
अभी सुलगते हैं रूह के ग़म, अभी धड़कते हैं दर्द दिल के
अभी तो एहसास जी रहा है।
यह लौ बचा लो जो थक के किरदार की हथेली से गिर पड़ी है
यह लौ बचा लो यहीं से उठेगी जुस्तजू फिर बगूला बनकर
यहीं से उठेगा कोई किरदार फिर इसी रोशनी को लेकर
कहीं तो अंजाम-ओ-जुस्तजू के सिरे मिलेंगे
अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो!


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अमलतास

खिड़की पिछवाड़े को खुलती तो नज़र आता था
वो अमलतास का इक पेड़ज़रा दूरअकेला-सा खड़ा था
शाखें पंखों की तरह खोले हुए
एक परिन्दे की तरह
बरगलाते थे उसे रोज़ परिन्दे आकर
सब सुनाते थे वि परवाज़ के क़िस्से उसको
और दिखाते थे उसे उड़ केक़लाबाज़ियाँ खा के
बदलियाँ छू के बताते थेमज़े ठंडी हवा के!
आंधी का हाथ पकड़ कर शायद
उसने कल उड़ने की कोशिश की थी
औंधे मुँह बीच-सड़क आके गिरा है!!
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 आँखों में जल रहा है क्यूँ बुझता नहीं धुआँ 

आँखों में जल रहा है क्यूँ बुझता नहीं धुआँ 
उठता तो है घटा-सा बरसता नहीं धुआँ 
चूल्हे नहीं जलाये या बस्ती ही जल गई 
कुछ रोज़ हो गये हैं अब उठता नहीं धुआँ 
आँखों के पोंछने से लगा आँच का पता 
यूँ चेहरा फेर लेने से छुपता नहीं धुआँ 
आँखों से आँसुओं के मरासिम पुराने हैं 
मेहमाँ ये घर में आयें तो चुभता नहीं धुआँ
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आदतन तुम ने कर दिये वादे 

आदतन तुम ने कर दिये वादे 
आदतन हम ने ऐतबार किया
तेरी राहों में हर बार रुक कर 
हम ने अपना ही इन्तज़ार किया
अब ना माँगेंगे जिन्दगी या रब 
ये गुनाह हम ने एक बार किया
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 आम

मोड़ पे देखा है वो बूढ़ा-सा इक आम का पेड़ कभी?
मेरा वाकिफ़ है बहुत सालों सेमैं जानता हूँ

जब मैं छोटा था तो इक आम चुराने के लिए
परली दीवार से कंधों पे चढ़ा था उसके
जाने दुखती हुई किस शाख से मेरा पाँव लगा
धाड़ से फेंक दिया था मुझे नीचे उसने
मैंने खुन्नस में बहुत फेंके थे पत्थर उस पर

मेरी शादी पे मुझे याद है शाखें देकर
मेरी वेदी का हवन गरम किया था उसने
और जब हामला थी बीबातो दोपहर में हर दिन
मेरी बीवी की तरफ़ कैरियाँ फेंकी थी उसी ने

वक़्त के साथ सभी फूलसभी पत्ते गए

तब भी लजाता था जब मुन्ने से कहती बीबा
'हाँ उसी पेड़ से आया है तूपेड़ का फल है।'

अब भी लजाता हूँजब मोड़ से गुज़रता हूँ
खाँस कर कहता है,"क्यूँसर के सभी बाल गए?"

सुबह से काट रहे हैं वो कमेटी वाले
मोड़ तक जाने की हिम्मत नहीं होती मुझको!

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इक जरा छींक ही दो तुम 

चिपचिपे दूध से नहलाते हैंआंगन में खड़ा कर के तुम्हें
शहद भीतेल भीहल्दी भीना जाने क्या क्या
घोल के सर पे लुढ़काते हैं गिलासियाँ भर के
औरतें गाती हैं जब तीव्र सुरों में मिल कर
पाँव पर पाँव लगाए खड़े रहते हो
इक पथराई सी मुस्कान लिए
बुत नहीं हो तो परेशानी तो होती होगी
जब धुआँ देतालगातार पुजारी
घी जलाता है कई तरह के छौंके देकर
इक जरा छींक ही दो तुम
तो यकीं आए कि सब देख रहे हो

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 ईंधन 

छोटे थे, माँ उपले थापा करती थी
हम उपलों पर शक्लें गूँधा करते थे
आँख लगाकर - कान बनाकर
नाक सजाकर -
पगड़ी वाला, टोपी वाला
मेरा उपला -
तेरा उपला -
अपने-अपने जाने-पहचाने नामों से
उपले थापा करते थे

हँसता-खेलता सूरज रोज़ सवेरे आकर
गोबर के उपलों पे खेला करता था
रात को आँगन में जब चूल्हा जलता था
हम सारे चूल्हा घेर के बैठे रहते थे
किस उपले की बारी आयी
किसका उपला राख हुआ
वो पंडित था -
इक मुन्ना था -
इक दशरथ था -
बरसों बाद - मैं
श्मशान में बैठा सोच रहा हूँ
आज की रात इस वक्त के जलते चूल्हे में
इक दोस्त का उपला और गया!
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एक नदी की बात सुनी...

एक नदी की बात सुनी...
इक शायर से पूछ रही थी
रोज़ किनारे दोनों हाथ पकड़ कर मेरे 
सीधी राह चलाते हैं
रोज़ ही तो मैं
नाव भर करपीठ पे लेकर
कितने लोग हैं पार उतार कर आती हूँ ।
रोज़ मेरे सीने पे लहरें
नाबालिग़ बच्चों के जैसे
कुछ-कुछ लिखी रहती हैं।
क्या ऐसा हो सकता है जब
कुछ भी न हो
कुछ भी नहीं...
और मैं अपनी तह से पीठ लगा के इक शब रुकी रहूँ
बस ठहरी रहूँ
और कुछ भी न हो !जैसे कविता कह लेने के बाद पड़ी रह जाती है,मैं पड़ी रहूँ...!

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 एक परवाज़ दिखाई दी है 

एक परवाज़ दिखाई दी है 
तेरी आवाज़ सुनाई दी है
जिस की आँखों में कटी थी सदियाँ 
उस ने सदियों की जुदाई दी है 
सिर्फ़ एक सफ़ाह पलट कर उस ने 
बीती बातों की सफ़ाई दी है 
फिर वहीं लौट के जाना होगा 
यार ने कैसी रिहाई दी है 
आग ने क्या क्या जलाया है शब भर 
कितनी ख़ुश-रंग दिखाई दी है
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एक बौछार था वो 


एक बौछार था वो शख्स 
बिना बरसे
किसी अब्र की सहमी सी नमी से 
जो भिगो देता था
एक बौछार ही था वो
जो कभी धूप की अफ़शां भर के दूर तक
सुनते हुए चेहरों पे छिड़क देता था...नीम तारीक से हॉल में आँखें चमक उठती थीं
सिर हिलाता था कभी झूम के टहनी की तरह
लगता था झोंका हवा का है
कोई छेड़ गया है..गुनगुनाता था तो खुलते हुए बादल की तरह
मुस्कुराहट में कई तर्बों की झनकार छुपी थी
गली क़ासिम से चली एक ग़ज़ल की झनाकर था वो
एक अवाज़ की बौछार था वो
शिमला के सफ़र का एक मंज़र :

सर्दी थी और कोहरा था
और सुबह की बस आधी आँख खुली थी,आधी नींद में थी!

शिमला से जब नीचे आते
एक पहाड़ी के कोने में
बस्ते जितनी बस्ती थी इक
बटवे जितना मंदिर था
साथ लगी मस्जिदवो भी लॉकिट जितनी

नींद भरी दो बाहों ,जैसे मस्जिद के मीनार गले में मन्दिर के

दो मासूम खुदा सोए थे!एक बूढ़े झरने के नीचे!!

तुझे पहचानूंगा कैसेतुझे देखा ही नहीं
ढूँढा करता हूं तुम्हें अपने चेहरे में ही कहीं
लोग कहते हैं मेरी आँखेंमेरी माँ सी हैं
यूं तो लबरेज़ हैं पानी सेमगर प्यासी हैं


......
जाने किस जल्दी में थी
जन्म दियादौड़ गयी
क्या खुदा देख लिया था
कि मुझे छोड़ गयी
तुझे पहचानूंगा कैसेतुझे देखा ही नहीं

वो कटी फटी हुई पत्तियां, और दाग़ हल्का हरा हरा!
वो रखा हुआ था किताब में, मुझे याद है वो ज़रा ज़रा|

मुझे शौक़ था के मिलूं तुझे, मुझे खौफ़ भी था कहूंगा क्या!
तेरे सामने से निकल गया, बडा सहमा सहमा डरा डरा|

बडा दोगला है ये शख्स भी, कोइ ऐतबार करे तो क्या
ना तो झूठ बोले कवि कभी, ना कभी कहे वो खरा खरा|

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बोस्की के लिए / गुलज़ार
कुछ ख़्वाबों के ख़त इन में कुछ चाँद के आईने ,

                                    
सूरज की शुआएँ हैं
नज़मों के लिफाफ़ों में कुछ मेरे तजुर्बे हैं,

                                  
कुछ मेरी दुआएँ हैं
निकलोगे सफ़र पर जब यह साथ में रख लेना,

                                
शायद कहीं काम आएँ

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मकान की ऊपरी मंज़िल 

मकान की ऊपरी मंज़िल पर अब कोई नहीं रहता

वो कमरे बंद हैं कबसे
जो 24 सीढियां जो उन तक पहुँचती थी, अब ऊपर नहीं जाती

मकान की ऊपरी मंज़िल पर अब कोई नहीं रहता
वहाँ कमरों में, इतना याद है मुझको
खिलौने एक पुरानी टोकरी में भर के रखे थे
बहुत से तो उठाने, फेंकने, रखने में चूरा हो गए

वहाँ एक बालकनी भी थी, जहां एक बेंत का झूला लटकता था.
मेरा एक दोस्त था, तोता, वो रोज़ आता था
उसको एक हरी मिर्ची खिलाता था

उसी के सामने एक छत थी, जहाँ पर
एक मोर बैठा आसमां पर रात भर
मीठे सितारे चुगता रहता था

मेरे बच्चों ने वो देखा नहीं,
वो नीचे की मंजिल पे रहते हैं
जहाँ पर पियानो रखा है, पुराने पारसी स्टाइल का
फ्रेज़र से ख़रीदा था, मगर कुछ बेसुरी आवाजें करता है
के उसकी रीड्स सारी हिल गयी हैं, सुरों के ऊपर दूसरे सुर चढ़ गए हैं

उसी मंज़िल पे एक पुश्तैनी बैठक थी
जहाँ पुरखों की तसवीरें लटकती थी
मैं सीधा करता रहता था, हवा फिर टेढा कर जाती

बहू को मूछों वाले सारे पुरखे क्लीशे [Cliche] लगते थे
मेरे बच्चों ने आखिर उनको कीलों से उतारा, पुराने न्यूज़ पेपर में
उन्हें महफूज़ कर के रख दिया था
मेरा भांजा ले जाता है फिल्मो में
कभी सेट पर लगाता है, किराया मिलता है उनसे

मेरी मंज़िल पे मेरे सामने
मेहमानखाना है, मेरे पोते कभी
अमरीका से आये तो रुकते हैं
अलग साइज़ में आते हैं वो जितनी बार आते
हैं, ख़ुदा जाने वही आते हैं या
हर बार कोई दूसरा आता है

वो एक कमरा जो पीछे की तरफ बंद
है, जहाँ बत्ती नहीं जलती, वहाँ एक
रोज़री रखी है, वो उससे महकता है,
वहां वो दाई रहती थी कि जिसने
तीनों बच्चों को बड़ा करने में
अपनी उम्र दे दी थी, मरी तो मैंने
दफनाया नहीं, महफूज़ करके रख दिया उसको.

और उसके बाद एक दो सीढिया हैं,
नीचे तहखाने में जाती हैं,
जहाँ ख़ामोशी रोशन है, सुकून
सोया हुआ है, बस इतनी सी पहलू में
जगह रख कर, के जब मैं सीढियों
से नीचे आऊँ तो उसी के पहलू
में बाज़ू पे सर रख कर सो जाऊँ

मकान की ऊपरी मंज़िल पर कोई नहीं रहता...

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किताबें झांकती हैं

किताबें झांकती हैं बंद अलमारी के शीशों से
बड़ी हसरत से तकती हैं
महीनों अब मुलाकातें नहीं होती
जो शामें उनकी सोहबत में कटा करती थीं
अब अक्सर गुजर जाती हैं कंप्यूटर के परदे पर
बड़ी बैचेन रहती हैं किताबें
उन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गई है
जो .गालें वो सुनाती थीं कि जिनके शल कभी गिरते नहीं थे
जो रिश्ते वो सुनाती थीं वो सारे उधड़े-उधड़े हैं
कोई स.फा पलटता हूं तो इक सिसकी निकलती है
कई लफ्जों के मानी गिर पड़े हैं
बिना पत्तों के सूखे ठूंठ लगते हैं वो सब अल्फाज
जिन पर अब कोई मानी उगते नहीं हैं
जबां पर जायका आता था स.फे पलटने का
अब उंगली क्लिक करने से बस एक झपकी गुजरती है
बहोत कुछ तह-ब-तह खुलता चला जाता है परदे पर
किताबों से जो जाती राब्ता था वो कट-सा गया है
कभी सीने पर रखकर लेट जाते थे
कभी गोदी में लेते थे
कभी घुटनों को अपने रहल की सूरत बनाकर
नीम सादे में पढ़ा करते थे
छूते थे जंबीं से
वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा आइंदा भी
मगर वो जो उन किताबों में मिला करते थे
सूखे फूल और महके हुए रुक्के
किताबें माँगने, गिरने, उठाने के बहाने जो रिश्ते बनते थे
अब उनका क्या होगा!
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