उर्दू की आधुनिक शायरी में अहमद फ़राज़ ने अपनी सादा जबावी से अपनी इस बात को पुख़्ता किया कि 'अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं, फ़राज़ अब ज़रा लहज़ा बदल के देखते हैं'। उनकी ग़ज़ल बेहद मक़बूल हुई, जिसे ग़ुलाम अली और हरिहरन जैसे कई नामचीन गायकों ने अपनी आवाज़ भी दी है।
जन्म : 12 जनवरी 1931
निधन : 25 अगस्त 2008
1.अच्छा था अगर ज़ख्म न भरते कोई दिन और
अच्छा था अगर ज़ख्म न भरते कोई दिन औरउस कू-ए-मलामत में गुजरते कोई दिन और
रातों के तेरी यादों के खुर्शीद उभरते
आँखों में सितारे से उभरते कोई दिन और
हमने तुझे देखा तो किसी और को ना देखा
ए काश तेरे बाद गुजरते कोई दिन और
राहत थी बहुत रंज में हम गमतलबों को
तुम और बिगड़ते तो संवरते कोई दिन और
गो तर्के-तअल्लुक था मगर जाँ पे बनी थी
मरते जो तुझे याद ना करते कोई दिन और
उस शहरे-तमन्ना से फ़राज़ आये ही क्यों थे
ये हाल अगर था तो ठहरते कोई दिन और
कू-ए-मलामत - ऐसी गली, जहाँ व्यंग्य किया जाता हो
खुर्शीद - सूर्य, रंज - तकलीफ़, गमतलब- दुख पसन्द करने वाले
तर्के-तअल्लुक - रिश्ता टूटना( यहाँ संवाद हीनता से मतलब है)
2.अजब जूनून-ए-मुसाफ़त में घर से निकला था
अजब जूनून-ए-मुसाफ़त में घर से निकला था,
ख़बर नहीं है कि सूरज किधर से निकला था,
ये कौन फिर से उन्हीं रास्तों में छोड़ गया,
अभी अभी तो अज़ाब-ए-सफ़र से निकला था,
ये तीर दिल में मगर बे-सबब नहीं उतरा,
कोई तो हर्फ़ लब-ए-चारागर से निकला था,
मैं रात टूट के रोया तो चैन से सोया,
कि दिल का दर्द मेरे चश्म-ए-तर से निकला था,
वो कैसे अब जिसे मजनू पुकारते हैं ‘फ़राज़’,
मेरी तरह कोई दिवाना-गर से निकला था,
ख़बर नहीं है कि सूरज किधर से निकला था,
ये कौन फिर से उन्हीं रास्तों में छोड़ गया,
अभी अभी तो अज़ाब-ए-सफ़र से निकला था,
ये तीर दिल में मगर बे-सबब नहीं उतरा,
कोई तो हर्फ़ लब-ए-चारागर से निकला था,
मैं रात टूट के रोया तो चैन से सोया,
कि दिल का दर्द मेरे चश्म-ए-तर से निकला था,
वो कैसे अब जिसे मजनू पुकारते हैं ‘फ़राज़’,
मेरी तरह कोई दिवाना-गर से निकला था,
3.अब के तज्दीद-ए-वफ़ा का नहीं इम्काँ जानाँ
अब के तज्दीद-ए-वफ़ा का नहीं इम्काँ जानाँ
याद क्या तुझ को दिलाएँ तेरा पैमाँ जानाँ
यूँ ही मौसम की अदा देख के याद आया है
किस क़दर जल्द बदल जाते हैं इन्साँ जानाँ
ज़िन्दगी तेरी अता थी सो तेरे नाम की है
हम ने जैसे भी बसर की तेरा एहसाँ जानाँ
दिल ये कहता है कि शायद हो फ़सुर्दा तू भी
दिल की क्या बात करें दिल तो है नादाँ जानाँ
अव्वल-अव्वल की मुहब्बत के नशे याद तो कर
बे-पिये भी तेरा चेहरा था गुलिस्ताँ जानाँ
आख़िर आख़िर तो ये आलम है कि अब होश नहीं
रग-ए-मीना सुलग उठी कि रग-ए-जाँ जानाँ
मुद्दतों से ये आलम न तवक़्क़ो न उम्मीद
दिल पुकारे ही चला जाता है जानाँ जानाँ
हम भी क्या सादा थे हम ने भी समझ रखा था
ग़म-ए-दौराँ से जुदा है ग़म-ए-जानाँ जानाँ
अब की कुछ ऐसी सजी महफ़िल-ए-याराँ जानाँ
सर-ब-ज़ानू है कोई सर-ब-गिरेबाँ जानाँ
हर कोई अपनी ही आवाज़ से काँप उठता है
हर कोई अपने ही साये से हिरासाँ जानाँ
जिस को देखो वही ज़न्जीर-ब-पा लगता है
शहर का शहर हुआ दाख़िल-ए-ज़िन्दाँ जानाँ
अब तेरा ज़िक्र भी शायद ही ग़ज़ल में आये
और से और हुआ दर्द का उन्वाँ जानाँ
हम कि रूठी हुई रुत को भी मना लेते थे
हम ने देखा ही न था मौसम-ए-हिज्राँ जानाँ
होश आया तो सभी ख़्वाब थे रेज़ा-रेज़ा
जैसे उड़ते हुये औराक़-ए-परेशाँ जानाँ
याद क्या तुझ को दिलाएँ तेरा पैमाँ जानाँ
यूँ ही मौसम की अदा देख के याद आया है
किस क़दर जल्द बदल जाते हैं इन्साँ जानाँ
ज़िन्दगी तेरी अता थी सो तेरे नाम की है
हम ने जैसे भी बसर की तेरा एहसाँ जानाँ
दिल ये कहता है कि शायद हो फ़सुर्दा तू भी
दिल की क्या बात करें दिल तो है नादाँ जानाँ
अव्वल-अव्वल की मुहब्बत के नशे याद तो कर
बे-पिये भी तेरा चेहरा था गुलिस्ताँ जानाँ
आख़िर आख़िर तो ये आलम है कि अब होश नहीं
रग-ए-मीना सुलग उठी कि रग-ए-जाँ जानाँ
मुद्दतों से ये आलम न तवक़्क़ो न उम्मीद
दिल पुकारे ही चला जाता है जानाँ जानाँ
हम भी क्या सादा थे हम ने भी समझ रखा था
ग़म-ए-दौराँ से जुदा है ग़म-ए-जानाँ जानाँ
अब की कुछ ऐसी सजी महफ़िल-ए-याराँ जानाँ
सर-ब-ज़ानू है कोई सर-ब-गिरेबाँ जानाँ
हर कोई अपनी ही आवाज़ से काँप उठता है
हर कोई अपने ही साये से हिरासाँ जानाँ
जिस को देखो वही ज़न्जीर-ब-पा लगता है
शहर का शहर हुआ दाख़िल-ए-ज़िन्दाँ जानाँ
अब तेरा ज़िक्र भी शायद ही ग़ज़ल में आये
और से और हुआ दर्द का उन्वाँ जानाँ
हम कि रूठी हुई रुत को भी मना लेते थे
हम ने देखा ही न था मौसम-ए-हिज्राँ जानाँ
होश आया तो सभी ख़्वाब थे रेज़ा-रेज़ा
जैसे उड़ते हुये औराक़-ए-परेशाँ जानाँ
4.अब के बरस भी
लब[1] तिश्न-ओ-नोमीद[2] हैं हम अब के बरस भी
ऐ ठहरे हुए अब्रे-करम[3] अब के बरस भी
कुछ भी हो गुलिस्ताँ[4] में मगर कुंजे- चमन [5] में
हैं दूर बहारों के क़दम अब के बरस भी
ऐ शेख़-करम[6]! देख कि बा-वस्फ़े-चराग़ाँ[7] तीरा[8] है दरो-बामे-हरम[9] अब के बरस भी
ऐ दिले-ज़दगान[10] मना ख़ैर, हैं नाज़ाँ[11] पिंदारे-ख़ुदाई[12] पे सनम[13] अब के बरस भी
पहले भी क़यामत[14] थी सितमकारी-ए-अय्याम[15] हैं कुश्त-ए-ग़म [16] कुश्त-ए-ग़म अब के बरस भी
लहराएँगे होंठों पे दिखावे के तबस्सुम[17] होगा ये नज़ारा[18] कोई दम[19] अब के बरस भी
हो जाएगा हर ज़ख़्मे-कुहन [20] फिर से नुमायाँ[21] रोएगा लहू दीद-ए-नम[22] अबके बरस भी
पहले की तरह होंगे तही[23] जामे-सिफ़ाली[24] छलकेगा हर इक साग़रे-जम[25] अब के बरस भी
मक़्तल[26] में नज़र आएँगे पा-बस्त-ए-ज़ंजीर[27] अहले-ज़रे-अहले-क़लम[28] अब के बरस भी
ऐ ठहरे हुए अब्रे-करम[3] अब के बरस भी
कुछ भी हो गुलिस्ताँ[4] में मगर कुंजे- चमन [5] में
हैं दूर बहारों के क़दम अब के बरस भी
ऐ शेख़-करम[6]! देख कि बा-वस्फ़े-चराग़ाँ[7] तीरा[8] है दरो-बामे-हरम[9] अब के बरस भी
ऐ दिले-ज़दगान[10] मना ख़ैर, हैं नाज़ाँ[11] पिंदारे-ख़ुदाई[12] पे सनम[13] अब के बरस भी
पहले भी क़यामत[14] थी सितमकारी-ए-अय्याम[15] हैं कुश्त-ए-ग़म [16] कुश्त-ए-ग़म अब के बरस भी
लहराएँगे होंठों पे दिखावे के तबस्सुम[17] होगा ये नज़ारा[18] कोई दम[19] अब के बरस भी
हो जाएगा हर ज़ख़्मे-कुहन [20] फिर से नुमायाँ[21] रोएगा लहू दीद-ए-नम[22] अबके बरस भी
पहले की तरह होंगे तही[23] जामे-सिफ़ाली[24] छलकेगा हर इक साग़रे-जम[25] अब के बरस भी
मक़्तल[26] में नज़र आएँगे पा-बस्त-ए-ज़ंजीर[27] अहले-ज़रे-अहले-क़लम[28] अब के बरस भी
शब्दार्थ:
- ↑ होंठ
- ↑ प्यासा और निराश
- ↑ दया के बादल
- ↑ उद्यान
- ↑ उद्यान के कोने में
- ↑ ईश्वर
- ↑ बावजूद
- ↑ अँधेरा
- ↑ काबे के द्वार व छत
- ↑ आहत हृदय
- ↑ गर्वान्वित
- ↑ ईश्वरीय गर्व
- ↑ मूर्तियाँ
- ↑ प्रलय, मुसीबत
- ↑ समय का अत्याचार
- ↑ दुख के मारे हुए
- ↑ मुस्कुराहटें
- ↑ दृश्य
- ↑ कुछ समय
- ↑ गहरा घाव
- ↑ सामने आएगा
- ↑ भीगे नेत्र
- ↑ ख़ाली
- ↑ मिट्टी के मद्य-पात्र
- ↑ जमशेद नामी जादूगर का मद्यपात्र
- ↑ वध-स्थल
- ↑ बेड़ियों में जकड़े पैर
- ↑ विद्वान व लेखक
5.अब के रुत बदली तो ख़ुशबू का सफ़र देखेगा कौन
अब के रुत बदली तो ख़ुशबू का सफ़र देखेगा कौन
ज़ख़्म फूलों की तरह महकेंगे पर देखेगा कौन
देखना सब रक़्स-ए-बिस्मल में मगन हो जाएँगे
जिस तरफ़ से तीर आयेगा उधर देखेगा कौन
वो हवस हो या वफ़ा हो बात महरूमी की है
लोग तो फल-फूल देखेंगे शजर देखेगा कौन
हम चिराग़-ए-शब ही जब ठहरे तो फिर क्या सोचना
रात थी किस का मुक़द्दर और सहर देखेगा कौन
आ फ़सील-ए-शहर से देखें ग़नीम-ए-शहर को
शहर जलता हो तो तुझ को बाम पर देखेगा कौन
ज़ख़्म फूलों की तरह महकेंगे पर देखेगा कौन
देखना सब रक़्स-ए-बिस्मल में मगन हो जाएँगे
जिस तरफ़ से तीर आयेगा उधर देखेगा कौन
वो हवस हो या वफ़ा हो बात महरूमी की है
लोग तो फल-फूल देखेंगे शजर देखेगा कौन
हम चिराग़-ए-शब ही जब ठहरे तो फिर क्या सोचना
रात थी किस का मुक़द्दर और सहर देखेगा कौन
आ फ़सील-ए-शहर से देखें ग़नीम-ए-शहर को
शहर जलता हो तो तुझ को बाम पर देखेगा कौन
6.अब नये साल की मोहलत नहीं मिलने वाली
अब नये साल की मोहलत नहीं मिलने वालीआ चुके अब तो शब-ओ-रोज़ अज़ाबों वाले
अब तो सब दश्ना-ओ-ख़ंज़र की ज़ुबाँ बोलते हैं
अब कहाँ लोग मुहब्बत के निसाबों वाले
ज़िन्दा रहने की तमन्ना हो तो हो जाते हैं
फ़ाख़्ताओं के भी किरदार उक़ाबों वाले
न मेरे ज़ख़्म खिले हैं न तेरा रंग-ए-हिना
मौसम आये ही नहीं अब के गुलाबों वाले
7.अल्मिया
अल्मिया[1]
किस तमन्ना [2]से ये चाहा था कि इक रोज़ तुझे
साथ अपने लिए उस शहर को जाऊँगा जिसे
मुझको छोड़े हुए,भूले हुए इक उम्र[3]हुई
हाय वो शहर कि जो मेरा वतन है फिर भी
उसकी मानूस[4]फ़ज़ाओं [5]से रहा बेग़ाना[6]
मेरा दिल मेरे ख़्यालों[7]की तरह दीवाना[8]
आज हालात का ये तंज़े-जिगरसोज़ [9]तो देख
तू मिरे शह्र के इक हुजल-ए-ज़र्रीं[10] में मकीं[11]
और मैं परदेस में जाँदाद-ए-यक-नाने-जवीं[12]
किस तमन्ना [2]से ये चाहा था कि इक रोज़ तुझे
साथ अपने लिए उस शहर को जाऊँगा जिसे
मुझको छोड़े हुए,भूले हुए इक उम्र[3]हुई
हाय वो शहर कि जो मेरा वतन है फिर भी
उसकी मानूस[4]फ़ज़ाओं [5]से रहा बेग़ाना[6]
मेरा दिल मेरे ख़्यालों[7]की तरह दीवाना[8]
आज हालात का ये तंज़े-जिगरसोज़ [9]तो देख
तू मिरे शह्र के इक हुजल-ए-ज़र्रीं[10] में मकीं[11]
और मैं परदेस में जाँदाद-ए-यक-नाने-जवीं[12]
शब्दार्थ:
- ↑ त्रासदी
- ↑ कामना,दिल की गहराइयों से
- ↑ लंबा समय
- ↑ परिचित
- ↑ हवाओं (वातावरण)
- ↑ अंजान
- ↑ विचारों
- ↑ पागल
- ↑ सीने को छलनी कर देने वाला उलाहना
- ↑ सोने (स्वर्ण) की सेज
- ↑ निवासी
- ↑ जौ की एक रोटी को तरसता
8.अव्वल अव्वल की दोस्ती है अभी
अव्वल अव्वल की दोस्ती है अभीइक ग़ज़ल है कि हो रही है अभी
मैं भी शहरे-वफ़ा में नौवारिद
वो भी रुक रुक के चल रही है अभी
मैं भी ऐसा कहाँ का ज़ूद शनास
वो भी लगता है सोचती है अभी
दिल की वारफ़तगी है अपनी जगह
फिर भी कुछ एहतियात सी है अभी
गरचे पहला सा इज्तिनाब नहीं
फिर भी कम कम सुपुर्दगी है अभी
कैसा मौसम है कुछ नहीं खुलता
बूंदा-बांदी भी धूप भी है अभी
ख़ुद-कलामी में कब ये नशा था
जिस तरह रु-ब-रू कोई है अभी
क़ुरबतें लाख खूबसूरत हों
दूरियों में भी दिलकशी है अभी
फ़सले-गुल में बहार पहला गुलाब
किस की ज़ुल्फ़ों में टांकती है अभी
सुबह नारंज के शिगूफ़ों की
किसको सौगात भेजती है अभी
रात किस माह -वश की चाहत में
शब्नमिस्तान सजा रही है अभी
मैं भी किस वादी-ए-ख़याल में था
बर्फ़ सी दिल पे गिर रही है अभी
मैं तो समझा था भर चुके सब ज़ख़्म
दाग़ शायद कोई कोई है अभी
दूर देशों से काले कोसों से
कोई आवाज़ आ रही है अभी
ज़िन्दगी कु-ए-ना-मुरादी से
किसको मुड़ मुड़ के देखती है अभी
इस क़दर खीच गयी है जान की कमान
ऐसा लगता है टूटती है अभी
ऐसा लगता है ख़ल्वत-ए-जान में
वो जो इक शख़्स था वोही है अभी
मुद्दतें हो गईं 'फ़राज़' मगर
वो जो दीवानगी थी, वही है अभी
नौवारिद - नया आने वाला, ज़ूद-शनास - जल्दी पहचानने वाला
वारफतगी - खोया खोयापन, इज्तिनाब - घृणा, अलगाव
सुपुर्दगी - सौंपना, खुदकलामी - खुद से बातचीत, शिगूफ़े- फूल, कलियां
चश्मे-पुर-खूं - खून से भरी हुई आँख
आबे-जमजम - मक्के का पवित्र पानी
अबस - बेकार, सानी - बराबर, दूसरा
कामत - लम्बे शरीर वाला (यहाँ कयामत/ज़ुल्म ढाने वाले से मतलब है)
9.आँख से दूर न हो
आँख से दूर न हो दिल से उतर जाएगावक़्त का क्या है गुज़रता है गुज़र जाएगा
इतना मानूस न हो ख़िल्वत-ए-ग़म से अपनी
तू कभी ख़ुद को भी देखेगा तो डर जाएगा
तुम सर-ए-राह-ए-वफ़ा देखते रह जाओगे
और वो बाम-ए-रफ़ाक़त से उतर जाएगा
किसी ख़ंज़र किसी तलवार को तक़्लीफ़ न दो
मरने वाला तो फ़क़त बात से मर जाएगा
ज़िन्दगी तेरी अता है तो ये जानेवाला
तेरी बख़्शीश तेरी दहलीज़ पे धर जाएगा
डूबते-डूबते कश्ती को उछाला दे दूँ
मैं नहीं कोई तो साहिल पे उतर जाएगा
ज़ब्त लाज़िम है मगर दुख है क़यामत का "फ़राज़"
ज़ालिम अब के भी न रोयेगा तो मर जाएगा
10.इज़्हार
पत्थर की तरह अगर मैं चुप रहूँ
तो ये न समझ कि मेरी हस्ती[2]
बेग़ान-ए-शोल-ए-वफ़ा[3] है
तहक़ीर[4] से यूँ न देख मुझको
ऐ संगतराश[5]!
तेरा तेशा[6]
मुम्किन[7] है कि ज़र्बे-अव्वली[8] से
पहचान सके कि मेरे दिल में
जो आग तेरे लिए दबी है
वो आग ही मेरी ज़िंदगी है
शब्दार्थ:
इन्हीं ख़ुशगुमानियों में कहीं जाँ से भी न जाओ
वो जो चारागर नहीं है उसे ज़ख़्म क्यूँ दिखाओ
ये उदासियों के मौसम कहीं रायेगाँ न जाएँ
किसी ज़ख़्म को कुरेदो किसी दर्द को जगाओ
वो कहानियाँ अधूरी जो न हो सकेंगी पूरी
उन्हें मैं भी क्यूँ सुनाऊँ उन्हें तुम भी क्यूँ सुनाओ
मेरे हमसफ़र पुराने मेरे अब भी मुंतज़िर हैं
तुम्हें साथ छोड़ना है तो अभी से छोड़ जाओ
ये जुदाइयों के रस्ते बड़ी दूर तक गए हैं
जो गया वो फिर न लौटा मेरी बात मान जाओ
किसी बेवफ़ा की ख़ातिर ये जुनूँ "फ़राज़" कब तक
जो तुम्हें भुला चुका है उसे तुम भी भूल जाओ
12. इस क़दर मुसलसल थीं शिद्दतें जुदाई की
इस क़दर मुसलसल थीं शिद्दतें जुदाई कीआज पहली बार मैनें उससे बेवफ़ाई की
वरना अब तलक यूँ था ख़्वाहिशों की बारिश में
या तो टूट कर रोया या फ़िर ग़ज़लसराई की
तज दिया था कल जिन को हमने तेरी चाहत में
आज उनसे मजबूरन ताज़ा आशनाई की
हो चला था जब मुझको इख़्तिलाफ़ अपने से
तूने किस घड़ी ज़ालिम मेरी हमनवाई की
तन्ज़-ओ-ताना-ओ-तोहमत सब हुनर हैं नासेह के
आपसे कोई पूछे हमने क्या बुराई की
फिर क़फ़स में शोर उठा क़ैदियों का और सय्याद
देखना उड़ा देगा फिर ख़बर रिहाई की
13. इस दौर-ए-बेजुनूँ की कहानी कोई लिखो
इस दौर-ए-बेजुनूँ की कहानी कोई लिखोजिस्मों को बर्फ़ ख़ून को पानी कोई लिखो
कोई कहो कि हाथ क़लम किस तरह हुए
क्यूँ रुक गई क़लम की रवानी कोई लिखो
क्यों अहल-ए-शौक़ सर-व-गरेबाँ हैं दोस्तो
क्यों ख़ूँ-ब-दिल है अहद-ए-जवानी कोई लिखो
क्यों सुर्मा-दर-गुलू है हर एक तायर-ए-सुख़न
क्यों गुलसिताँ क़फ़स का है सानी कोई लिखो
हाँ ताज़ा सानेहों का करे कौन इंतज़ार
हाँ दिल की वारदात पुरानी कोई लिखो
14. इस से पहले कि बेवफ़ा हो जाएँ
इस से पहले कि बेवफ़ा हो जाएँ
क्यूँ न ए दोस्त हम जुदा हो जाएँ
तू भी हीरे से बन गया पत्थर
हम भी कल जाने क्या से क्या हो जाएँ
हम भी मजबूरियों का उज़्र करें
फिर कहीं और मुब्तिला हो जाएँ
अब के गर तू मिले तो हम तुझसे
ऐसे लिपटें तेरी क़बा[1] हो जाएँ
बंदगी हमने छोड़ दी फ़राज़
क्या करें लोग जब ख़ुदा हो जाएँ
शब्दार्थ:
- ↑ चोली
15. उसका अपना ही करिश्मा है फ़सूँ है यूँ है
उसका अपना ही करिश्मा है फ़सूँ है, यूँ हैयूँ तो कहने को सभी कहते है, यूँ है, यूँ है
जैसे कोई दर-ए-दिल हो पर सिताज़ा कब से
एक साया न दरू है न बरू है, यूँ है,
तुमने देखी ही नहीं दश्त-ए-वफा की तस्वीर
चले हर खार पे कि कतरा-ए-खूँ है, यूँ है
अब तुम आए हो मेरी जान तमाशा करने
अब तो दरिया में तलातुम न सकूँ है, यूँ है
नासेहा तुझको खबर क्या कि मुहब्बत क्या है
रोज़ आ जाता है समझाता है, यूँ है, यूँ है
शाइरी ताज़ा ज़मानो की है मामर 'फ़राज़'
ये भी एक सिलसिला कुन्फ़े क्यूँ है, यूँ है, यूँ है
16. उसको जुदा हुए भी ज़माना बहुत हुआ
उसको जुदा हुए भी ज़माना बहुत हुआ
अब क्या कहें ये क़िस्सा पुराना बहुत हुआ
ढलती न थी किसी भी जतन से शब-ए-फ़िराक़
ऐ मर्ग-ए-नागहाँ तेरा आना बहुत हुआ
हम ख़ुल्द से निकल तो गये हैं पर ऐ ख़ुदा
इतने से वाक़ये का फ़साना बहुत हुआ
अब हम हैं और सारे ज़माने की दुश्मनी
उससे ज़रा रब्त बढ़ाना बहुत हुआ
अब क्यों न ज़िन्दगी पे मुहब्बत को वार दें
इस आशिक़ी में जान से जाना बहुत हुआ
अब तक तो दिल का दिल से तार्रुफ़ न हो सका
माना कि उससे मिलना मिलाना बहुत हुआ
क्या-क्या न हम ख़राब हुए हैं मगर ये दिल
ऐ याद-ए-यार तेरा ठिकाना बहुत हुआ
कहता था नासेहों से मेरे मुँह न आईओ
फिर क्या था एक हू का बहाना बहुत हुआ
अब क्या कहें ये क़िस्सा पुराना बहुत हुआ
ढलती न थी किसी भी जतन से शब-ए-फ़िराक़
ऐ मर्ग-ए-नागहाँ तेरा आना बहुत हुआ
हम ख़ुल्द से निकल तो गये हैं पर ऐ ख़ुदा
इतने से वाक़ये का फ़साना बहुत हुआ
अब हम हैं और सारे ज़माने की दुश्मनी
उससे ज़रा रब्त बढ़ाना बहुत हुआ
अब क्यों न ज़िन्दगी पे मुहब्बत को वार दें
इस आशिक़ी में जान से जाना बहुत हुआ
अब तक तो दिल का दिल से तार्रुफ़ न हो सका
माना कि उससे मिलना मिलाना बहुत हुआ
क्या-क्या न हम ख़राब हुए हैं मगर ये दिल
ऐ याद-ए-यार तेरा ठिकाना बहुत हुआ
कहता था नासेहों से मेरे मुँह न आईओ
फिर क्या था एक हू का बहाना बहुत हुआ
17. उसने कहा सुन
उसने कहा सुनअहद निभाने की ख़ातिर मत आना
अहद निभानेवाले अक्सर मजबूरी या
महजूरी की थकन से लौटा करते हैं
तुम जाओ और दरिया-दरिया प्यास बुझाओ
जिन आँखों में डूबो
जिस दिल में भी उतरो
मेरी तलब आवाज़ न देगी
लेकिन जब मेरी चाहत और मेरी ख़्वाहिश की लौ
इतनी तेज़ और इतनी ऊँची हो जाये
जब दिल रो दे
तब लौट आना
18. उसने सुकूत-ए-शब में भी अपना पयाम रख दिया
उसने सुकूत-ए-शब में भी अपना पयाम रख दियाहिज्र की रात बाम पर माहे-तमाम रख दिया
आमद-ए-दोस्त की नवीद कू-ए-वफ़ा में आम थी
मैनें भी इक चिराग़-सा दिल सर-ए-शाम रख दिया
देखो ये मेरे ख़्वाब थे देखो ये मेरे ज़ख़्म हैं
मैनें तो सब हिसाब-ए-जाँ बरसर-ए-आम रख दिया
उसने नज़र-नज़र में ही ऐसे भले सुख़न कहे
मैनें तो उसके पाँओं में सारा कलाम रख दिया
शिद्दत-ए-तिश्नगी में भी ग़ैरत-ए-मैकशी रही
उसने जो फेर ली नज़र मैनें भी जाम रख दिय
और "फ़राज़" चाहिये कितनी मुहब्बतें तुझे
के माँओं ने तेरे नाम पर बच्चों का नाम रख दिया
19. एक बार ही जी भर के सज़ा क्यूँ नहीं देते ?
एक बार ही जी भर के सज़ा क्यूँ नहीं देते ?मैं हर्फ़-ए-ग़लत हूँ तो मिटा क्यूँ नहीं देते ?
मोती हूँ तो दामन में पिरो लो मुझे अपने,
आँसू हूँ तो पलकों से गिरा क्यूँ नहीं देते ?
साया हूँ तो साथ ना रखने कि वज़ह क्या 'फ़राज़',
पत्थर हूँ तो रास्ते से हटा क्यूँ नहीं देते ?
20. सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं
सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं
सो उसके शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं
सुना है रब्त है उसको ख़राब हालों से
सो अपने आप को बरबाद कर के देखते हैं
सुना है दर्द की गाहक है चश्म-ए-नाज़ उसकी
सो हम भी उसकी गली से गुज़र के देखते हैं
सुना है उसको भी है शेर-ओ-शायरी से शगफ़
सो हम भी मोजज़े अपने हुनर के देखते हैं
सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं
ये बात है तो चलो बात कर के देखते हैं
सुना है रात उसे चाँद तकता रहता है
सितारे बाम-ए-फ़लक से उतर के देखते हैं
सुना है हश्र हैं उसकी ग़ज़ाल सी आँखें
सुना है उस को हिरन दश्त भर के देखते हैं
सुना है दिन को उसे तितलियाँ सताती हैं
सुना है रात को जुगनू ठहर के देखते हैं
सुना है रात से बढ़ कर हैं काकुलें उसकी
सुना है शाम को साये गुज़र के देखते हैं
सुना है उसकी सियाह चश्मगी क़यामत है
सो उसको सुरमाफ़रोश आह भर के देखते हैं
सुना है उसके लबों से गुलाब जलते हैं
सो हम बहार पर इल्ज़ाम धर के देखते हैं
सुना है आईना तमसाल है जबीं उसकी
जो सादा दिल हैं उसे बन सँवर के देखते हैं
सुना है जब से हमाइल हैं उसकी गर्दन में
मिज़ाज और ही लाल-ओ-गौहर के देखते हैं
सुना है चश्म-ए-तसव्वुर से दश्त-ए-इम्काँ में
पलंग ज़ाविए उसकी कमर के देखते हैं
सुना है उसके बदन के तराश ऐसे हैं
के फूल अपनी क़बायेँ कतर के देखते हैं
वो सर-ओ-कद है मगर बे-गुल-ए-मुराद नहीं
के उस शजर पे शगूफ़े समर के देखते हैं
बस एक निगाह से लुटता है क़ाफ़िला दिल का
सो रहर्वान-ए-तमन्ना भी डर के देखते हैं
सुना है उसके शबिस्तान से मुत्तसिल है बहिश्त
मकीन उधर के भी जलवे इधर के देखते हैं
रुके तो गर्दिशें उसका तवाफ़ करती हैं
चले तो उसको ज़माने ठहर के देखते हैं
किसे नसीब के बे-पैरहन उसे देखे
कभी-कभी दर-ओ-दीवार घर के देखते हैं
कहानियाँ हीं सही सब मुबालग़े ही सही
अगर वो ख़्वाब है ताबीर कर के देखते हैं
अब उसके शहर में ठहरें कि कूच कर जायेँ
फ़राज़ आओ सितारे सफ़र के देखते हैं
अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं
फ़राज़ अब ज़रा लहजा बदल के देखते हैं
जुदाइयां तो मुक़द्दर हैं फिर भी जाने सफ़र
कुछ और दूर ज़रा साथ चलके देखते हैं
रह-ए-वफ़ा में हरीफ़-ए-खुराम कोई तो हो
सो अपने आप से आगे निकल के देखते हैं
तू सामने है तो फिर क्यों यकीं नहीं आता
यह बार बार जो आँखों को मल के देखते हैं
ये कौन लोग हैं मौजूद तेरी महफिल में
जो लालचों से तुझे, मुझे जल के देखते हैं
यह कुर्ब क्या है कि यकजाँ हुए न दूर रहे
हज़ार इक ही कालिब में ढल के देखते हैं
न तुझको मात हुई न मुझको मात हुई
सो अबके दोनों ही चालें बदल के देखते हैं
यह कौन है सर-ए-साहिल कि डूबने वाले
समन्दरों की तहों से उछल के देखते हैं
अभी तलक तो न कुंदन हुए न राख हुए
हम अपनी आग में हर रोज़ जल के देखते हैं
बहुत दिनों से नहीं है कुछ उसकी ख़ैर ख़बर
चलो फ़राज़ को ऐ यार चल के देखते हैं
21.ज़िन्दगी यूँ थी कि जीने का बहाना तू था
ज़िन्दगी यूँ थी कि जीने का बहाना तू था
हम फ़क़त जेबे-हिकायत थे फ़साना तू था
हमने जिस जिस को भी चाहा तेरे हिज्राँ में वो लोग
आते जाते हुए मौसम थे ज़माना तू था
अबके कुछ दिल ही ना माना क पलट कर आते
वरना हम दरबदरों का तो ठिकाना तू था
यार अगियार कि हाथों में कमानें थी फ़राज़
और सब देख रहे थे कि निशाना तू था
22.तुम्हें देखे ज़माने हो गए हैं
भरी है धूप ही धूप
आँखों में
लगता है
सब कुछ उजला उजला
तुम्हें देखे ज़माने हो गए हैं
आँखों में
लगता है
सब कुछ उजला उजला
तुम्हें देखे ज़माने हो गए हैं
23.तुम भी ख़फ़ा हो लोग भी बरहम हैं दोस्तों
तुम भी ख़फा हो लोग भी बरहम हैं दोस्तों
अ़ब हो चला यकीं के बुरे हम हैं दोस्तों
किसको हमारे हाल से निस्बत हैं क्या करे
आखें तो दुश्मनों की भी पुरनम हैं दोस्तों
अपने सिवा हमारे न होने का ग़म किसे
अपनी तलाश में तो हम ही हम हैं दोस्तों
कुछ आज शाम ही से हैं दिल भी बुझा बुझा
कुछ शहर के चराग भी मद्धम हैं दोस्तों
इस शहरे आरज़ू से भी बाहर निकल चलो
अ़ब दिल की रौनकें भी कोई दम हैं दोस्तों
सब कुछ सही "फ़राज़" पर इतना ज़रूर हैं
दुनिया में ऐसे लोग बहुत कम हैं दोस्तों
5.
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें।
अ़ब हो चला यकीं के बुरे हम हैं दोस्तों
किसको हमारे हाल से निस्बत हैं क्या करे
आखें तो दुश्मनों की भी पुरनम हैं दोस्तों
अपने सिवा हमारे न होने का ग़म किसे
अपनी तलाश में तो हम ही हम हैं दोस्तों
कुछ आज शाम ही से हैं दिल भी बुझा बुझा
कुछ शहर के चराग भी मद्धम हैं दोस्तों
इस शहरे आरज़ू से भी बाहर निकल चलो
अ़ब दिल की रौनकें भी कोई दम हैं दोस्तों
सब कुछ सही "फ़राज़" पर इतना ज़रूर हैं
दुनिया में ऐसे लोग बहुत कम हैं दोस्तों
24.साथ रोती थी मेरे साथ हंसा करती थी
साथ रोती थी मेरे साथ हंसा करती थी
वो लड़की जो मेरे दिल में बसा करती थी
मेरी चाहत की तलबगार थी इस दर्जे की
वो मुसल्ले पे नमाज़ों में दुआ करती थी
एक लम्हे का बिछड़ना भी गिरां था उसको
रोते हुए मुझको ख़ुद से जुदा करती थी
मेरे दिल में रहा करती थी धड़कन बनकर
और साये की तरह साथ रहा करती थी
रोग दिल को लगा बैठी अंजाने में
मेरी आगोश में मरने की दुआ करती थी
बात क़िस्मत की है ‘फ़राज़’ जुदा हो गए हम
वरना वो तो मुझे तक़दीर कहा करती थी
वो लड़की जो मेरे दिल में बसा करती थी
मेरी चाहत की तलबगार थी इस दर्जे की
वो मुसल्ले पे नमाज़ों में दुआ करती थी
एक लम्हे का बिछड़ना भी गिरां था उसको
रोते हुए मुझको ख़ुद से जुदा करती थी
मेरे दिल में रहा करती थी धड़कन बनकर
और साये की तरह साथ रहा करती थी
रोग दिल को लगा बैठी अंजाने में
मेरी आगोश में मरने की दुआ करती थी
बात क़िस्मत की है ‘फ़राज़’ जुदा हो गए हम
वरना वो तो मुझे तक़दीर कहा करती थी
25.जो रंजिशें थी जो दिल में गुबार था ना गया
जो रंजिशें थी जो दिल में गुबार था ना गया,
कि अब की बार गले मिल के भी गिला ना गया,
अब उस के वादा-ए-फ़र्दान को भी तरसते हैं,
कल उसकी बात पे क्यूँ ऐतबार आ ना गया,
अब उसके हिज्र में रोऐं या वस्ल में खुश हों,
वो दोस्त हो भी तो समझो कि दोस्ताना गया,
निगाहे-यार का क्या है हुई हुई ना हुई,
ये दिल का दर्द है प्यारे गया गया ना गया,
सभी को जान थी प्यारी सभी थे लब-बस्ता,
बस इक ‘फ़राज़’ था ज़ालिम से चुप रहा ना गया,
कि अब की बार गले मिल के भी गिला ना गया,
अब उस के वादा-ए-फ़र्दान को भी तरसते हैं,
कल उसकी बात पे क्यूँ ऐतबार आ ना गया,
अब उसके हिज्र में रोऐं या वस्ल में खुश हों,
वो दोस्त हो भी तो समझो कि दोस्ताना गया,
निगाहे-यार का क्या है हुई हुई ना हुई,
ये दिल का दर्द है प्यारे गया गया ना गया,
सभी को जान थी प्यारी सभी थे लब-बस्ता,
बस इक ‘फ़राज़’ था ज़ालिम से चुप रहा ना गया,
26.किताबों मे मेरे फ़साने ढूँढते हैं
किताबों में मेरे फ़साने ढूँढते हैं,
नादां हैं गुज़रे ज़माने ढूँढते हैं ।
जब वो थे तलाशे-ज़िंदगी भी थी,
अब तो मौत के ठिकाने ढूँढते हैं ।
कल ख़ुद ही अपनी महफ़िल से निकाला था,
आज हुए से दीवाने ढूँढते हैं ।
मुसाफ़िर बे-ख़बर हैं तेरी आँखों से,
तेरे शहर में मैख़ाने ढूँढते हैं ।
तुझे क्या पता ऐ सितम ढाने वाले,
हम तो रोने के बहाने ढूँढते हैं ।
उनकी आँखों को यूँ ना देखो ’फ़राज़’,
नए तीर हैं, निशाने ढूँढते हैं ।
नादां हैं गुज़रे ज़माने ढूँढते हैं ।
जब वो थे तलाशे-ज़िंदगी भी थी,
अब तो मौत के ठिकाने ढूँढते हैं ।
कल ख़ुद ही अपनी महफ़िल से निकाला था,
आज हुए से दीवाने ढूँढते हैं ।
मुसाफ़िर बे-ख़बर हैं तेरी आँखों से,
तेरे शहर में मैख़ाने ढूँढते हैं ।
तुझे क्या पता ऐ सितम ढाने वाले,
हम तो रोने के बहाने ढूँढते हैं ।
उनकी आँखों को यूँ ना देखो ’फ़राज़’,
नए तीर हैं, निशाने ढूँढते हैं ।
27.चलो इश्क़ नहीं चाहने की आदत है
चलो ये इश्क़ नहीं चाहने की आदत है
कि क्या करें हमें दू्सरे की आदत है
तू अपनी शीशा-गरी का हुनर न कर ज़ाया[1]
मैं आईना हूँ मुझे टूटने की आदत है
मैं क्या कहूँ के मुझे सब्र क्यूँ नहीं आता
मैं क्या करूँ के तुझे देखने की आदत है
तेरे नसीब में ऐ दिल सदा की महरूमी[2]
न वो सख़ी[3] न तुझे माँगने की आदत है
विसाल[4] में भी वो ही है फ़िराक़[5] का आलम
कि उसको नींद मुझे रत-जगे की आदत है
ये मुश्क़िलें हों तो कैसे रास्ते तय हों
मैं ना-सुबूर[6] उसे सोचने की आदत है
ये ख़ुद-अज़ियती कब तक "फ़राज़" तू भी उसे
न याद कर कि जिसे भूलने की आदत है
शब्दार्थ:कि क्या करें हमें दू्सरे की आदत है
तू अपनी शीशा-गरी का हुनर न कर ज़ाया[1]
मैं आईना हूँ मुझे टूटने की आदत है
मैं क्या कहूँ के मुझे सब्र क्यूँ नहीं आता
मैं क्या करूँ के तुझे देखने की आदत है
तेरे नसीब में ऐ दिल सदा की महरूमी[2]
न वो सख़ी[3] न तुझे माँगने की आदत है
विसाल[4] में भी वो ही है फ़िराक़[5] का आलम
कि उसको नींद मुझे रत-जगे की आदत है
ये मुश्क़िलें हों तो कैसे रास्ते तय हों
मैं ना-सुबूर[6] उसे सोचने की आदत है
ये ख़ुद-अज़ियती कब तक "फ़राज़" तू भी उसे
न याद कर कि जिसे भूलने की आदत है
28.ज़िन्दगी से यही गिला है मुझे
ज़िन्दगी से यही गिला है मुझे
तू बहुत देर से मिला है मुझे
हमसफ़र चाहिये हुजूम नहीं
इक मुसाफ़िर भी काफ़िला है मुझे
तू मोहब्बत से कोई चाल तो चल
हार जाने का हौसला है मुझे
लब कुशां हूं तो इस यकीन के साथ
कत्ल होने का हौसला है मुझे
दिल धडकता नहीं सुलगता है
वो जो ख्वाहिश थी, आबला है मुझे
कौन जाने कि चाहतो में फ़राज़
क्या गंवाया है क्या मिला है मुझे
तू बहुत देर से मिला है मुझे
हमसफ़र चाहिये हुजूम नहीं
इक मुसाफ़िर भी काफ़िला है मुझे
तू मोहब्बत से कोई चाल तो चल
हार जाने का हौसला है मुझे
लब कुशां हूं तो इस यकीन के साथ
कत्ल होने का हौसला है मुझे
दिल धडकता नहीं सुलगता है
वो जो ख्वाहिश थी, आबला है मुझे
कौन जाने कि चाहतो में फ़राज़
क्या गंवाया है क्या मिला है मुझे
29.ख़्वाब मरते नहीं
ख़्वाब मरते नहीं
ख़्वाब दिल हैं न आँखें न साँसें कि जो
रेज़ा-रेज़ा[1] हुए तो बिखर जाएँगे
जिस्म की मौत से ये भी मर जाएँगे
ख़्वाब मरते नहीं
ख़्वाब तो रोशनी हैं नवा हैं[2] हवा हैं
जो काले पहाड़ों से रुकते नहीं
ज़ुल्म के दोज़खों से भी फुकते नहीं
रोशनी और नवा के अलम
मक़्तलों[3] में पहुँचकर भी झुकते नहीं
ख़्वाब तो हर्फ़[4] हैं
ख़्वाब तो नूर[5] हैं
ख़्वाब सुक़रात [6] हैं
ख़्वाब मंसूर[7]हैं.
ख़्वाब दिल हैं न आँखें न साँसें कि जो
रेज़ा-रेज़ा[1] हुए तो बिखर जाएँगे
जिस्म की मौत से ये भी मर जाएँगे
ख़्वाब मरते नहीं
ख़्वाब तो रोशनी हैं नवा हैं[2] हवा हैं
जो काले पहाड़ों से रुकते नहीं
ज़ुल्म के दोज़खों से भी फुकते नहीं
रोशनी और नवा के अलम
मक़्तलों[3] में पहुँचकर भी झुकते नहीं
ख़्वाब तो हर्फ़[4] हैं
ख़्वाब तो नूर[5] हैं
ख़्वाब सुक़रात [6] हैं
ख़्वाब मंसूर[7]हैं.
शब्दार्थ:
- ↑ कण-कण
- ↑ आवाज़
- ↑ वधस्थल
- ↑ अक्षर
- ↑ प्रकाश
- ↑ जिन्हें सच कहने के लिए ज़ह्र का प्याला पीना पड़ा था
- ↑ एक वली(महात्मा) जिन्होंने ‘अनलहक़’ (मैं ईश्वर हूँ) कहा था और इस अपराध के लिए उनकी गर्दन काट डाली गई थी
30.कुछ न किसी से बोलेंगे
कुछ न किसी से बोलेंगे
तन्हाई में रो लेंगे
हम बेरहबरों का क्या
साथ किसी के हो लेंगे
ख़ुद तो हुए रुसवा लेकिन
तेरे भेद न खोलेंगे
जीवन ज़हर भरा साग़र
कब तक अमृत घोलेंगे
नींद तो क्या आयेगी "फ़राज़"
मौत आई तो सो लेंगे
तन्हाई में रो लेंगे
हम बेरहबरों का क्या
साथ किसी के हो लेंगे
ख़ुद तो हुए रुसवा लेकिन
तेरे भेद न खोलेंगे
जीवन ज़हर भरा साग़र
कब तक अमृत घोलेंगे
नींद तो क्या आयेगी "फ़राज़"
मौत आई तो सो लेंगे
31.उसने कहा सुन
उसने कहा सुन
अहद निभाने की ख़ातिर मत आना
अहद निभानेवाले अक्सर मजबूरी या
महजूरी की थकन से लौटा करते हैं
तुम जाओ और दरिया-दरिया प्यास बुझाओ
जिन आँखों में डूबो
जिस दिल में भी उतरो
मेरी तलब आवाज़ न देगी
लेकिन जब मेरी चाहत और मेरी ख़्वाहिश की लौ
इतनी तेज़ और इतनी ऊँची हो जाये
जब दिल रो दे
तब लौट आना
अहद निभाने की ख़ातिर मत आना
अहद निभानेवाले अक्सर मजबूरी या
महजूरी की थकन से लौटा करते हैं
तुम जाओ और दरिया-दरिया प्यास बुझाओ
जिन आँखों में डूबो
जिस दिल में भी उतरो
मेरी तलब आवाज़ न देगी
लेकिन जब मेरी चाहत और मेरी ख़्वाहिश की लौ
इतनी तेज़ और इतनी ऊँची हो जाये
जब दिल रो दे
तब लौट आना
32.कहा था किस ने के अह्द-ए-वफ़ा करो उससे
कहा था किसने के अहद-ए-वफ़ा करो उससे
जो यूँ किया है तो फिर क्यूँ गिला करो उससे
ये अह्ल-ए-बज़ तुनक हौसला सही फिर भी
ज़रा फ़साना-ए-दिल इब्तिदा करो उससे
ये क्या के तुम ही ग़म-ए-हिज्र के फ़साने कहो
कभी तो उसके बहाने सुना करो उससे
नसीब फिर कोई तक़्रीब-ए-क़र्ब हो के न हो
जो दिल में हों वही बातें किया करो उससे
"फ़राज़" तर्क-ए-त'अल्लुक़ तो ख़ैर क्या होगा
यही बहुत है के कम कम मिला करो उससे
जो यूँ किया है तो फिर क्यूँ गिला करो उससे
ये अह्ल-ए-बज़ तुनक हौसला सही फिर भी
ज़रा फ़साना-ए-दिल इब्तिदा करो उससे
ये क्या के तुम ही ग़म-ए-हिज्र के फ़साने कहो
कभी तो उसके बहाने सुना करो उससे
नसीब फिर कोई तक़्रीब-ए-क़र्ब हो के न हो
जो दिल में हों वही बातें किया करो उससे
"फ़राज़" तर्क-ए-त'अल्लुक़ तो ख़ैर क्या होगा
यही बहुत है के कम कम मिला करो उससे
33.ख़्वाब
शब्दार्थ:
कुछ शेर
1.
अब किस का जश्न मनाते हो उस देस का जो तक़्सीम हुआ
अब किस के गीत सुनाते हो उस तन-मन का जो दो-नीम हुआ
2.
उस ख़्वाब का जो रेज़ा रेज़ा उन आँखों की तक़दीर हुआ
उस नाम का जो टुकड़ा टुकड़ा गलियों में बे-तौक़ीर हुआ
3.
उस परचम का जिस की हुर्मत बाज़ारों में नीलाम हुई
उस मिट्टी का जिस की हुर्मत मन्सूब उदू के नाम हुई
4.
उस जंग का जो तुम हार चुके उस रस्म का जो जारी भी नहीं
उस ज़ख़्म का जो सीने पे न था उस जान का जो वारी भी नहीं
5.
उस ख़ून का जो बदक़िस्मत था राहों में बहाया तन में रहा
उस फूल का जो बेक़ीमत था आँगन में खिला या बन में रहा
6.
उस मश्रिक़ का जिस को तुम ने नेज़े की अनी मर्हम समझा
उस मग़रिब का जिस को तुम ने जितना भी लूटा कम समझा
7.
उन मासूमों का जिन के लहू से तुम ने फ़रोज़ाँ रातें कीं
या उन मज़लूमों का जिस से ख़ंज़र की ज़ुबाँ में बातें कीं
8.
उस मरियम का जिस की इफ़्फ़त लुटती है भरे बाज़ारों में
उस ईसा का जो क़ातिल है और शामिल है ग़मख़्वारों में
9.
इन नौहागरों का जिन ने हमें ख़ुद क़त्ल किया ख़ुद रोते हैं
ऐसे भी कहीं दमसाज़ हुए ऐसे जल्लाद भी होते हैं
10.
उन भूखे नंगे ढाँचों का जो रक़्स सर-ए-बाज़ार करें
या उन ज़ालिम क़ज़्ज़ाक़ों का जो भेस बदल कर वार करें
11.
या उन झूठे इक़रारों का जो आज तलक ऐफ़ा न हुए
या उन बेबस लाचारों का जो और भी दुख का निशाना हुए
12.
इस शाही का जो दस्त-ब-दस्त आई है तुम्हारे हिस्से में
क्यों नन्ग-ए-वतन की बात करो क्या रखा है इस क़िस्से में
13.
आँखों में छुपाये अश्कों को होंठों में वफ़ा के बोल लिये
इस जश्न में भी शामिल हूँ नौहों से भरा कश्कोल लिये
14.
दिल के रिश्तों कि नज़ाक़त वो क्या जाने 'फ़राज़'
नर्म लफ़्ज़ों से भी लग जाती हैं चोटें अक्सर
15.
चढते सूरज के पूजारी तो लाखों हैं 'फ़राज़',
डूबते वक़्त हमने सूरज को भी तन्हा देखा |
16.
उस शख़्स को बिछड़ने का सलीका भी नहीं,
जाते हुए खुद को मेरे पास छोड़ गया ।
अब किस का जश्न मनाते हो उस देस का जो तक़्सीम हुआ
अब किस के गीत सुनाते हो उस तन-मन का जो दो-नीम हुआ
2.
उस ख़्वाब का जो रेज़ा रेज़ा उन आँखों की तक़दीर हुआ
उस नाम का जो टुकड़ा टुकड़ा गलियों में बे-तौक़ीर हुआ
3.
उस परचम का जिस की हुर्मत बाज़ारों में नीलाम हुई
उस मिट्टी का जिस की हुर्मत मन्सूब उदू के नाम हुई
4.
उस जंग का जो तुम हार चुके उस रस्म का जो जारी भी नहीं
उस ज़ख़्म का जो सीने पे न था उस जान का जो वारी भी नहीं
5.
उस ख़ून का जो बदक़िस्मत था राहों में बहाया तन में रहा
उस फूल का जो बेक़ीमत था आँगन में खिला या बन में रहा
6.
उस मश्रिक़ का जिस को तुम ने नेज़े की अनी मर्हम समझा
उस मग़रिब का जिस को तुम ने जितना भी लूटा कम समझा
7.
उन मासूमों का जिन के लहू से तुम ने फ़रोज़ाँ रातें कीं
या उन मज़लूमों का जिस से ख़ंज़र की ज़ुबाँ में बातें कीं
8.
उस मरियम का जिस की इफ़्फ़त लुटती है भरे बाज़ारों में
उस ईसा का जो क़ातिल है और शामिल है ग़मख़्वारों में
9.
इन नौहागरों का जिन ने हमें ख़ुद क़त्ल किया ख़ुद रोते हैं
ऐसे भी कहीं दमसाज़ हुए ऐसे जल्लाद भी होते हैं
10.
उन भूखे नंगे ढाँचों का जो रक़्स सर-ए-बाज़ार करें
या उन ज़ालिम क़ज़्ज़ाक़ों का जो भेस बदल कर वार करें
11.
या उन झूठे इक़रारों का जो आज तलक ऐफ़ा न हुए
या उन बेबस लाचारों का जो और भी दुख का निशाना हुए
12.
इस शाही का जो दस्त-ब-दस्त आई है तुम्हारे हिस्से में
क्यों नन्ग-ए-वतन की बात करो क्या रखा है इस क़िस्से में
13.
आँखों में छुपाये अश्कों को होंठों में वफ़ा के बोल लिये
इस जश्न में भी शामिल हूँ नौहों से भरा कश्कोल लिये
14.
दिल के रिश्तों कि नज़ाक़त वो क्या जाने 'फ़राज़'
नर्म लफ़्ज़ों से भी लग जाती हैं चोटें अक्सर
15.
चढते सूरज के पूजारी तो लाखों हैं 'फ़राज़',
डूबते वक़्त हमने सूरज को भी तन्हा देखा |
16.
उस शख़्स को बिछड़ने का सलीका भी नहीं,
जाते हुए खुद को मेरे पास छोड़ गया ।
1.
रंजिश ही सही, दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ।
रंजिश ही सही, दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ।
2.
कौन आता है मगर आस लगाए रखना
उम्र भर दर्द की शमाओं को जलाए रखना। (शमा : लौ)
कौन आता है मगर आस लगाए रखना
उम्र भर दर्द की शमाओं को जलाए रखना। (शमा : लौ)
3.
काफ़िर के दिल से आया हूं मैं ये देखकर
ख़ुदा मौजूद है वहां, पर उसे पता नहीं।
काफ़िर के दिल से आया हूं मैं ये देखकर
ख़ुदा मौजूद है वहां, पर उसे पता नहीं।
4.
यूं ही मौसम की अदा देख के याद आया है
किस क़दर जल्द बदल जाते हैं इंसान जानां।
यूं ही मौसम की अदा देख के याद आया है
किस क़दर जल्द बदल जाते हैं इंसान जानां।
5.
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें।
6.
आंख से दूर न हो, दिल से उतर जाएगा
वक़्त का क्या है, गुज़रता है गुज़र जाएगा।
आंख से दूर न हो, दिल से उतर जाएगा
वक़्त का क्या है, गुज़रता है गुज़र जाएगा।
7.
दोस्त बनकर भी नहीं साथ निभानेवाला
वही अंदाज़ है ज़ालिम का ज़मानेवाला।
दोस्त बनकर भी नहीं साथ निभानेवाला
वही अंदाज़ है ज़ालिम का ज़मानेवाला।
8.
शोला था जल बुझा हूं हवाएं मुझे न दो
मैं कब का जा चुका हूं सदाएं मुझे न दो। (सदा : आवाज़)
शोला था जल बुझा हूं हवाएं मुझे न दो
मैं कब का जा चुका हूं सदाएं मुझे न दो। (सदा : आवाज़)
9.
कितना आसां था तेरे हिज्र में मरना जाना
फिर भी इक उम्र लगी जान से जाते-जाते। (हिज्र : जुदाई)
कितना आसां था तेरे हिज्र में मरना जाना
फिर भी इक उम्र लगी जान से जाते-जाते। (हिज्र : जुदाई)
10.
करूं न याद उसे मगर किस तरह भुलाऊं उसे
ग़ज़ल बहाना करूं और गुनगुनाऊं उसे।
करूं न याद उसे मगर किस तरह भुलाऊं उसे
ग़ज़ल बहाना करूं और गुनगुनाऊं उसे।
11.
ज़िन्दगी से यही गिला है मुझे
तू बहुत देर से मिला है मुझे।
ज़िन्दगी से यही गिला है मुझे
तू बहुत देर से मिला है मुझे।
12.
ऐसे चुप हैं कि ये मंज़िल भी कड़ी हो जाए
तेरा मिलना भी जुदाई की घड़ी हो जाए।
ऐसे चुप हैं कि ये मंज़िल भी कड़ी हो जाए
तेरा मिलना भी जुदाई की घड़ी हो जाए।
13.
बदन में आग-सी चेहरा गुलाब जैसा है
कि ज़हर-ए-ग़म का नशा भी शराब जैसा है।
बदन में आग-सी चेहरा गुलाब जैसा है
कि ज़हर-ए-ग़म का नशा भी शराब जैसा है।
14.
'फ़राज़' अब कोई सौदा कोई जुनूं भी नहीं
मगर क़रार से दिन कट रहे हों, यूं भी नहीं।
'फ़राज़' अब कोई सौदा कोई जुनूं भी नहीं
मगर क़रार से दिन कट रहे हों, यूं भी नहीं।
15.
हर तमाशाई फक़त साहिल से मंज़र देखता
कौन दरिया को उलटता कौन गौहर देखता। (फक़त : सिर्फ, गौहर : मोती)
हर तमाशाई फक़त साहिल से मंज़र देखता
कौन दरिया को उलटता कौन गौहर देखता। (फक़त : सिर्फ, गौहर : मोती)
16.
इससे पहले कि बेवफ़ा हो जाएं
क्यों नहीं दोस्त हम जुदा हो जाएं।
इससे पहले कि बेवफ़ा हो जाएं
क्यों नहीं दोस्त हम जुदा हो जाएं।
17.
ये क्या कि सब से बयां दिल की हालतें करनी
'फ़राज़' तुझको न आईं मुहब्बतें करनी।
ये क्या कि सब से बयां दिल की हालतें करनी
'फ़राज़' तुझको न आईं मुहब्बतें करनी।
18.
तू पास भी हो तो दिल बेक़रार अपना है
कि हमको तेरा नहीं, इंतज़ार अपना है।
19.तू पास भी हो तो दिल बेक़रार अपना है
कि हमको तेरा नहीं, इंतज़ार अपना है।
सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं
यह बात है तो चलो बात करके देखते हैं।
20.
एक तो खवाब लिए फिरते हो गलियो गलियो
उस पर तकरार भी करते हो खरीद-दार के साथ
यह बात है तो चलो बात करके देखते हैं।
20.
एक तो खवाब लिए फिरते हो गलियो गलियो
उस पर तकरार भी करते हो खरीद-दार के साथ
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