Friday, 17 May 2013

अकबर इलाहाबादी


अकबर इलाहाबादी  
हिन्द में तो मज़हबी हालत है अब नागुफ़्ता बेह
मौलवी की मौलवी से रूबकारी हो गई

एक डिनर में खा गया इतना कि तन से निकली जान
ख़िदमते-क़ौमी में बारे जाँनिसारी हो गई

अपने सैलाने-तबीयत पर जो की मैंने नज़र
आप ही अपनी मुझे बेएतबारी हो गई

नज्द में भी मग़रिबी तालीम जारी हो गई
लैला-ओ-मजनूँ में आख़िर फ़ौजदारी हो गई

शब्दार्थ :नागुफ़्ता बेह= जिसका ना कहना ही बेहतर हो;
रूबकारी=जान-पहचान
जाँनिसारी= जान क़ुर्बान करना
सैलाने-तबीयत= तबीयत की आवारागर्दी
नज्द= अरब के एक जंगल का नाम जहाँ मजनू मारा-मारा फिरता था।

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क्योंकर ख़ुदा के अर्श के क़ायल हों ये अज़ीज़
जुगराफ़िये में अर्श का नक़्शा नहीं मिला


क़ौम के ग़म में डिनर खाते हैं हुक्काम के साथ
रंज लीडर को बहुत है मगर आराम के साथ


जान ही लेने की हिकमत में तरक़्क़ी देखी
मौत का रोकने वाला कोई पैदा न हुआ

तालीम का शोर ऐसा, तहज़ीब का ग़ुल इतना
बरकत जो नहीं होती नीयत की ख़राबी है

तुम बीवियों को मेम बनाते हो आजकल
क्या ग़म जो हम ने मेम को बीवी बना लिया?

नौकरों पर जो गुज़रती है, मुझे मालूम है
बस करम कीजे मुझे बेकार रहने दीजिये


मय भी होटल में पियो,चन्दा भी दो मस्जिद में
शेख़ भी ख़ुश रहे, शैतान भी बेज़ार न हो


ऐश का भी ज़ौक़ दींदारी की शुहरत का भी शौक़
आप म्यूज़िक हाल में क़ुरआन गाया कीजिये


गुले तस्वीर किस ख़ूबी से गुलशन में लगाया है
मेरे सैयाद ने बुलबुल को भी उल्लू बनाया है


मछली ने ढील पाई है लुक़में पे शाद है
सैयद मुतमइन है कि काँटा निगल गई


ज़वाले क़ौम की इन्तिदा वही थी कि जब
तिजारत आपने की तर्क नौकरी कर ली



फ़िरगी से कहा, पेंशन भी ले कर बस यहाँ रहिये
कहा-जीने को आए हैं,यहाँ मरने नहीं आये

बर्क़ के लैम्प से आँखों को बचाए अल्लाह
रौशनी आती है, और नूर चला जाता है

काँउंसिल में सवाल होने लगे
क़ौमी ताक़त ने जब जवाब दिता

हरमसरा की हिफ़ाज़त को तेग़ ही न रही
तो काम देंगी ये चिलमन की तीलियाँ कब तक ?

ख़ुदा के फ़ज़्ल से बीवी-मियाँ दोनों मुहज़्ज़ब हैं
हिजाब उनको नहीं आता इन्हें ग़ुसा नहीं आता

माल गाड़ी पे भरोशा है जिन्हें ऐ अकबर
उनको क्या ग़म है गुनाहों की गिराँबारी का?

ख़ुदा की राह में बेशर्त करते थे सफ़र पहले
मगर अब पूछते हैं रेलवे इसमें कहाँ तक है?

पुरानी रोशनी में और नई में फ़र्क़ है इतना
उसे कश्ती नहीं मिलती इसे साहिल नहीं मिलता

दिल में अब नूरे-ख़ुदा के दिन गए
हड्डियों में फॉसफ़ोरस देखिए


मेरी नसीहतों को सुन कर वो शोख़ बोला-
"नेटिव की क्या सनद है साहब कहे तो मानूँ"


नूरे इस्लाम ने समझा था मुनासिब पर्दा
शमा -ए -ख़ामोश को फ़ानूस की हाजत क्या है



बेपर्दा नज़र आईं जो चन्द बीवियाँ
‘अकबर’ ज़मीं में ग़ैरते क़ौमी से गड़ गया
पूछा जो उनसे -‘आपका पर्दा कहाँ गया?’
कहने लगीं कि अक़्ल पे मर्दों की पड़ गया.


 * 
पाकर ख़िताब नाच का भी ज़ौक़ हो गया
‘सर’ हो गये, तो ‘बाल’ का भी शौक़ हो गया
 *
बोला चपरासी जो मैं पहुँचा ब-उम्मीदे-सलाम-
"फाँकिये ख़ाक़ आप भी साहब हवा खाने गये"
 *
ख़ुदा की राह में अब रेल चल गई ‘अकबर’!
जो जान देना हो अंजन से कट मरो इक दिन.
 *
क्या ग़नीमत नहीं ये आज़ादी
साँस लेते हैं बात करते हैं!
 * 
तंग इस दुनिया से दिल दौरे-फ़लक़ में आ गया
जिस जगह मैंने बनाया घर, सड़क में आ गया 

तालीम लड़कियों की ज़रूरी तो है मगर
ख़ातूने-ख़ाना हों, वे सभा की परी न हों
जो इल्मों-मुत्तकी हों, जो हों उनके मुन्तज़िम
उस्ताद अच्छे हों, मगर ‘उस्ताद जी’ न हों

तालीमे-दुख़तराँ से ये उम्मीद है ज़रूर
नाचे दुल्हन ख़ुशी से ख़ुद अपनी बारात में

हम ऐसी कुल किताबें क़ाबिले-ज़ब्ती समझते हैं
कि जिनको पढ़ के बच्चे बापको ख़ब्ती समझते हैं

क़द्रदानों की तबीयत का अजब रंग है आज
बुलबुलों को ये हसरत, कि वो उल्लू न हुए.

दिल लिया है हमसे जिसने दिल्लगी के वास्ते
क्या तआज्जुब है जो तफ़रीहन हमारी जान ले

शेख़ जी घर से न निकले और लिख कर दे दिया
आप बी०ए० पास हैं तो बन्दा बीवी पास है

तमाशा देखिये बिजली का मग़रिब और मशरिक़ में
कलों में है वहाँ दाख़िल, यहाँ मज़हब पे गिरती है.

तिफ़्ल में बू आए क्या माँ -बाप के अतवार की
दूध तो डिब्बे का है, तालीम है सरकार की

कर दिया कर्ज़न ने ज़न मर्दों की सूरत देखिये
आबरू चेहरों की सब, फ़ैशन बना कर पोंछ ली

मग़रबी ज़ौक़ है और वज़ह की पाबन्दी भी
ऊँट पे चढ़ के थियेटर को चले हैं हज़रत

जो जिसको मुनासिब था गर्दूं ने किया पैदा
यारों के लिए ओहदे, चिड़ियों के लिए फन्दे

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हंगामा है क्यूँ बरपा थोड़ी सी जो पी ली है
डाका तो नहीं डाला, चोरी तो नहीं की है
ना-तजुर्बाकारी से वाइज़ की ये बातें हैं
इस रंग को क्या जाने, पूछो तो कभी पी है
वाइज़= धर्मोपदेशक
उस मय से नहीं मतलब दिल जिस से है बेगाना
मक़सूद है उस मय से, दिल ही में जो खिंचती है
मक़सूद= मनोरथ
वाँ दिल में कि सदमे दो या जी में के सब सह लो
उन का भी अजब दिल है मेरा भी अजब जी है
हर ज़र्रा चमकता है अनवार-ए-इलाही से
हर साँस ये कहती हम हैं तो ख़ुदा भी है
अनवार-ए-इलाही= दैवी प्रकाश
सूरज में लगे धब्बा, फ़ितरत के करिश्मे हैं
बुत हम को कहे काफ़िर, अल्लाह की मर्ज़ी

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सूप का शायक़ हूँ यख़नी होगी क्या
चाहिए कटलेट यह कीमा क्या करूँ

लैथरिज की चाहिए रीडर मुझे
शेख़ सादी की करीमा क्या करूँ

खींचते हैं हर तरफ़ तानें हरीफ़
फिर मैं अपने सुर को धीमा क्यों करूँ

डाक्टर से दोस्ती लड़ने से बैर
फिर मैं अपनी जान बीमा क्या करूँ

चांद में आया नज़र ग़ारे-मोहीब
हाये अब ऎ माहे-सीमा क्या करूँ

शब्दार्थ :शायक़= शौक़ीन, चाहने वाला;
करीमा= शेख़ सादी की एक क़िताब जिसमें ईश्वर का गुणगान किया गया है।;
हरीफ़=दुश्मन या विरोधी;
ग़ारे-मोहीब=गहरी गुफ़ा;
माहे-सीमा= चन्द्रमुखी


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साँस लेते हुए भी डरता हूँ
ये न समझें कि आह करता हूँ
बहर-ए-हस्ती में हूँ मिसाल-ए-हुबाब
मिट ही जाता हूँ जब उभरता हूँ
बहर-ए-हस्ती = जीवन सागर
हुबाब = बु्लबुला
इतनी आज़ादी भी ग़नीमत है
साँस लेता हूँ बात करता हूँ
शेख़ साहब खुदा से डरते हो
मैं तो अंग्रेज़ों ही से डरता हूँ
आप क्या पूछते हैं मेरा मिज़ाज
शुक्र अल्लाह का है मरता हूँ
ये बड़ा ऐब मुझ में है 'अकबर' 
दिल में जो आए कह गुज़रता हूँ 

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समझे वही इसको जो हो दीवाना किसी का
'अकबर' ये ग़ज़ल मेरी है अफ़साना किसी का
गर शैख़ो-बहरमन सुनें अफ़साना किसी का
माबद न रहे काब-ओ-बुतख़ाना किसी का
अल्लाह ने दी है जो तुम्हे चांद-सी सूरत
रौशन भी करो जाके सियहख़ाना किसी का
अश्क आँखों में आ जाएँ एवज़ नींद के साहब
ऐसा भी किसी शब सुनो अफ़साना किसी का
इशरत जो नहीं आती मिरे दिल में, न आए
हसरत ही से आबाद है वीराना किसी का
करने जो नहीं देते बयाँ हालते-दिल को
सुनिएगा लबे-ग़ौर से अफ़साना किसी का
कोई न हुआ रूह का साथी दमे-आख़िर
काम आया न इस वक़्त में याराना किसी का
हम जान से बेज़ार रहा करते हैं 'अकबर' 
जब से दिले-बेताब है दीवाना किसी का 

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शक्ल जब बस गई आँखों में तो छुपना कैसा
दिल में घर करके मेरी जान ये परदा कैसा

आप मौजूद हैं हाज़िर है ये सामान-ए-निशात
उज़्र सब तै हैं बस अब वादा-ए-फ़रदा कैसा

तेरी आँखों की जो तारीफ़ सुनी है मुझसे
घूरती है मुझे ये नर्गिस-ए-शेहला कैसा

ऎ मसीहा यूँ ही करते हैं मरीज़ों का इलाज
कुछ न पूछा के है बीमार हमारा कैसा

क्या कहा तुमने के हम जाते हैं दिल अपना संभाल
ये तड़प कर निकल आएगा संभलना कैसा


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बिठाई जाएंगी परदे में बीबियाँ कब तक
बने रहोगे तुम इस मुल्क में मियाँ कब तक

हरम-सरा की हिफ़ाज़त को तेग़ ही न रही
तो काम देंगी यह चिलमन की तितलियाँ कब तक

मियाँ से बीबी हैं, परदा है उनको फ़र्ज़ मगर
मियाँ का इल्म ही उट्ठा तो फिर मियाँ कब तक

तबीयतों का नमू है हवाए-मग़रिब में
यह ग़ैरतें, यह हरारत, यह गर्मियाँ कब तक

अवाम बांध ले दोहर को थर्ड-वो-इंटर में
सिकण्ड-ओ-फ़र्स्ट की हों बन्द खिड़कियाँ कब तक

जो मुँह दिखाई की रस्मों पे है मुसिर इब्लीस
छुपेंगी हज़रते हव्वा की बेटियाँ कब तक

जनाबे हज़रते 'अकबर' हैं हामिए-पर्दा
मगर वह कब तक और उनकी रुबाइयाँ कब तक

शब्दार्थ :हरम-सरा= भवन का वह भाग जहाँ स्त्रियाँ रहती हैं; 
तेग़= तलवार; 
नमू=उठान; 
मग़रिब=पश्चिम;
ग़ैरत= हयादारी;
हरारत= गर्मी;
अवाम= जनता;
मुसिर= ज़िद्द करना
हामिए-पर्दा= पर्दे का समर्थन करने वाला
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फिर गई आप की दो दिन में तबीयत कैसी
ये वफ़ा कैसी थी साहब ! ये मुरव्वत कैसी

दोस्त अहबाब से हंस बोल के कट जायेगी रात
रिंद-ए-आज़ाद हैं, हमको शब-ए-फुरक़त कैसी

जिस हसीं से हुई उल्फ़त वही माशूक़ अपना
इश्क़ किस चीज़ को कहते हैं, तबीयत कैसी


है जो किस्मत में वही होगा न कुछ कम, न सिवा
आरज़ू कहते हैं किस चीज़ को, हसरत कैसी

हाल खुलता नहीं कुछ दिल के धड़कने का मुझे
आज रह रह के भर आती है तबीयत कैसी

कूचा-ए-यार में जाता तो नज़ारा करता
क़ैस आवारा है जंगल में, ये वहशत कैसी

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मुंशी कि क्लर्क या ज़मींदार
लाज़िम है कलेक्टरी का दीदार
हंगामा ये वोट का फ़क़त है
मतलूब हरेक से दस्तख़त है
हर सिम्त मची हुई है हलचल
हर दर पे शोर है कि चल-चल
टमटम हों कि गाड़ियां कि मोटर
जिस पर देको, लदे हैं वोटर
शाही वो है या पयंबरी है
आखिर क्या शै ये मेंबरी है
नेटिव है नमूद ही का मुहताज
कौंसिल तो उनकी हि जिनका है राज
कहते जाते हैं, या इलाही
सोशल हालत की है तबाही
हम लोग जो इसमें फंस रहे हैं
अगियार भी दिल में हंस रहे हैं
दरअसल न दीन है न दुनिया
पिंजरे में फुदक रही है मुनिया
स्कीम का झूलना वो झूलें
लेकिन ये क्यों अपनी राह भूलें
क़ौम के दिल में खोट है पैदा
अच्छे अच्छे हैं वोट के शैदा
क्यो नहीं पड़ता अक्ल का साया
इसको समझें फ़र्जे-किफ़ाया
भाई-भाई में हाथापाई
सेल्फ़ गवर्नमेंट आगे आई
पंव का होश अब फ़िक्र न सर की
वोट की धुन में बन गए फिरकी

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दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार1 नहीं हूँ
बाज़ार से गुज़रा हूँ, ख़रीददार नहीं हूँ

ज़िन्दा हूँ मगर ज़ीस्त2 की लज़्ज़त3 नहीं बाक़ी
हर चंद कि हूँ होश में, होशियार नहीं हूँ

इस ख़ाना-ए-हस्त4 से गुज़र जाऊँगा बेलौस5
साया हूँ फ़क़्त6, नक़्श7 बेदीवार नहीं हूँ

अफ़सुर्दा8 हूँ इबारत9 से, दवा की नहीं हाजित10
गम़ का मुझे ये जो’फ़11 है, बीमार नहीं हूँ

वो गुल12 हूँ ख़िज़ां13 ने जिसे बरबाद किया है
उलझूँ किसी दामन से मैं वो ख़ार14 नहीं हूँ

यारब मुझे महफ़ूज़15 रख उस बुत के सितम से
मैं उस की इनायत16 का तलबगार17 नहीं हूँ

अफ़सुर्दगी-ओ-जौफ़18 की कुछ हद नहीं “अकबर”
क़ाफ़िर19 के मुक़ाबिल में भी दींदार20 नहीं हूँ

शब्दार्थ: 1. तलबगार= इच्छुक, चाहने वाला; 2. ज़ीस्त= जीवन; 3. लज़्ज़त= स्वाद; 4. ख़ाना-ए-हस्त= अस्तित्व का घर; 5. बेलौस= लांछन के बिना; 6. फ़क़्त= केवल; 7. नक़्श= चिन्ह, चित्र; 8. अफ़सुर्दा= निराश; 9. इबारत= शब्द, लेख; 10. हाजित(हाजत)= आवश्यकता; 11. जो’फ़(ज़ौफ़)= कमजोरी, क्षीणता; 12. गुल= फूल; 13. ख़िज़ां= पतझड़; 14. ख़ार= कांटा; 15. महफ़ूज़= सुरक्षित; 16. इनायत= कृपा; 17. तलबगार= इच्छुक; 18. अफ़सुर्दगी-ओ-जौफ़= निराशा और क्षीणता; 19. क़ाफ़िर= नास्तिक; 20. दींदार=आस्तिक,धर्म का पालन करने वाला।


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दिल मेरा जिस से बहलता कोई ऐसा न मिला
बुत के बंदे तो मिले अल्लाह का बंदा न मिला
बज़्म-ए-याराँ से फिरी बाद-ए-बहारी मायूस
एक सर भी उसे आमादा-ए-सौदा न मिला
बज़्म-ए-याराँ=मित्रसभा; बाद-ए-बहारी=वासन्ती हवा; मायूस=निराश; आमादा-ए-सौदा=पागल होने को तैयार
गुल के ख्व़ाहाँ तो नज़र आए बहुत इत्रफ़रोश
तालिब-ए-ज़मज़म-ए-बुलबुल-ए-शैदा न मिला
ख्व़ाहाँ=चाहने वाले; इत्रफ़रोश=इत्र बेचने वाले;
तालिब-ए-ज़मज़म-ए-बुलबुल-ए-शैदा=फूलों पर न्योछावर होने वाली बुलबुल के नग्मों का इच्छुक
वाह क्या राह दिखाई हमें मुर्शिद ने
कर दिया काबे को गुम और कलीसा न मिला
मुर्शिद=गु्रू; कलीसा=चर्च,गिरजाघर
सय्यद उठे तो गज़ट ले के तो लाखों लाए
शेख़ क़ुरान दिखाता फिरा पैसा न मिला
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दम लबों पर था दिलेज़ार के घबराने से
आ गई है जान में जाँ आपके आ जाने से

तेरा कूचा न छूटेगा तेरे दीवाने से
उस को काबे से न मतलब है न बुतख़ाने से

शेख़ नाफ़ह्म हैं करते जो नहीं क़द्र उसकी
दिल फ़रीश्तों के मिले हैं तेरे दीवानों से

मैं जो कहता हूँ कि मरता हूँ तो फ़रमाते हैं
कारे-दुनिया न रुकेगा तेरे मर जाने से

कौन हमदर्द किसी का है जहाँ में 'अक़बर'
इक उभरता है यहाँ एक के मिट जाने से
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तअज्जुब से कहने लगे बाबू साहब
गौरमेन्ट सैयद पे क्यों मेहरबाँ है

उसे क्यों हुई इस क़दर कामियाबी
कि हर बज़्म में बस यही दास्ताँ है

कभी लाट साहब हैं मेहमान उसके
कभी लाट साहब का वह मेहमाँ है

नहीं है हमारे बराबर वह हरगिज़
दिया हमने हर सीग़े का इम्तहाँ है

वह अंग्रेज़ी से कुछ भी वाक़िफ़ नहीं है
यहाँ जितनी इंगलिश है सब बरज़बाँ हैं

कहा हँस के 'अकबर' ने ऎ बाबू साहब
सुनो मुझसे जो रम्ज़ उसमें निहाँ हैं

नहीं है तुम्हें कुछ भी सैयद से निस्बत
तुम अंग्रेज़ीदाँ हो वह अंग्रेज़दाँ है
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जो यूं ही लहज़ा-लहज़ा दाग़-ए-हसरत की तरक़्क़ी है
अजब क्या, रफ्ता-रफ्ता मैं सरापा सूरत-ए-दिल हूँ

मदद ऐ रहनुमा-ए-गुमरहां इस दश्त-ए-गु़र्बत में
मुसाफ़िर हूँ, परीशाँ हाल हूँ, गु़मकर्दा मंज़िल हूँ

ये मेरे सामने शेख-ओ-बरहमन क्या झगड़ते हैं
अगर मुझ से कोई पूछे, कहूँ दोनों का क़ायल हूँ

अगर दावा-ए-यक रंगीं करूं, नाख़ुश न हो जाना
मैं इस आईनाखा़ने में तेरा अक्स-ए-मुक़ाबिल हूँ

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जान ही लेने की हिकमत में तरक़्क़ी देखी
मौत का रोकने वाला कोई पैदा न हुआ

उसकी बेटी ने उठा रक्खी है दुनिया सर पर
ख़ैरियत गुज़री कि अंगूर के बेटा न हुआ

ज़ब्त से काम लिया दिल ने तो क्या फ़ख़्र करूँ
इसमें क्या इश्क की इज़्ज़त थी कि रुसवा न हुआ

मुझको हैरत है यह किस पेच में आया ज़ाहिद
दामे-हस्ती में फँसा, जुल्फ़ का सौदा न हुआ 

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ख़ुशी है सब को कि आप्रेशन में ख़ूब नश्तर चल रहा है
किसी को इसकी ख़बर नहीं है मरीज़ का दम निकल रहा है

फ़ना उसी रंग पर है क़ायम, फ़लक वही चाल चल रहा है
शिकस्ता-ओ-मुन्तशिर है वह कल, जो आज साँचे में ढल रहा है

यह देखते ही जो कासये-सर, गुरूरे-ग़फ़लत से कल था ममलू
यही बदन नाज़ से पला था जो आज मिट्टी में गल रहा है

समझ हो जिसकी बलीग़ समझे, नज़र हो जिसकी वसीअ देखे
अभी तक ख़ाक भी उड़ेगी जहाँ यह क़ुल्जुम उबल रहा है

कहाँ का शर्क़ी कहाँ का ग़र्बी तमाम दुख सुख है यह मसावी
यहाँ भी एक बामुराद ख़ुश है, वहाँ भी एक ग़म से जल रहा है

उरूजे-क़ौमी ज़वाले-क़ौमी, ख़ुदा की कुदरत के हैं करिश्मे
हमेशा रद्द-ओ-बदल के अन्दर यह अम्र पोलिटिकल रहा है

मज़ा है स्पीच का डिनर में, ख़बर यह छपती है पॉनियर में
फ़लक की गर्दिश के साथ ही साथ काम यारों का चल रहा है


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कोई हँस रहा है कोई रो रहा है
कोई पा रहा है कोई खो रहा है

कोई ताक में है किसी को है ग़फ़्लत
कोई जागता है कोई सो रहा है

कहीँ नाउम्मीदी ने बिजली गिराई
कोई बीज उम्मीद के बो रहा है

इसी सोच में मैं तो रहता हूँ 'अकबर'
यह क्या हो रहा है यह क्यों हो रहा है

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किस किस अदा से तूने जलवा दिखा के मारा
आज़ाद हो चुके थे, बन्दा बना के मारा

अव्वल बना के पुतला, पुतले में जान डाली
फिर उसको ख़ुद क़ज़ा की सूरत में आके मारा

आँखों में तेरी ज़ालिम छुरियाँ छुपी हुई हैं
देखा जिधर को तूने पलकें उठाके मारा

ग़ुंचों में आके महका, बुलबुल में जाके चहका
इसको हँसा के मारा, उसको रुला के मारा

सोसन की तरह अकबर, ख़ामोश हैं यहाँ पर
नरगिस में इसने छिप कर आँखें लड़ा के मारा


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कहाँ ले जाऊँ दिल दोनों जहाँ में इसकी मुश्किल है ।
यहाँ परियों का मजमा है, वहाँ हूरों की महफ़िल है ।

इलाही कैसी-कैसी सूरतें तूने बनाई हैं,
हर सूरत कलेजे से लगा लेने के क़ाबिल है।

ये दिल लेते ही शीशे की तरह पत्थर पे दे मारा,
मैं कहता रह गया ज़ालिम मेरा दिल है, मेरा दिल है ।

जो देखा अक्स आईने में अपना बोले झुँझलाकर,
अरे तू कौन है, हट सामने से क्यों मुक़ाबिल है ।

हज़ारों दिल मसल कर पाँवों से झुँझला के फ़रमाया,
लो पहचानो तुम्हारा इन दिलों में कौन सा दिल है ।


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कट गई झगड़े में सारी रात वस्ल-ए-यार की
शाम को बोसा लिया था, सुबह तक तकरार की 

ज़िन्दगी मुमकिन नहीं अब आशिक़-ए-बीमार की
छिद गई हैं बरछियाँ दिल में निगाह-ए-यार की 

हम जो कहते थे न जाना बज़्म में अग़यार की 
देख लो नीची निगाहें हो गईं सरकार की

ज़हर देता है तो दे, ज़ालिम मगर तसकीन को 
इसमें कुछ तो चाशनी हो शरब-ए-दीदार की 

बाद मरने के मिली जन्नत ख़ुदा का शुक्र है 
मुझको दफ़नाया रफ़ीक़ों ने गली में यार की 

लूटते हैं देखने वाले निगाहों से मज़े 
आपका जोबन मिठाई बन गया बाज़ार की 

थूक दो ग़ुस्सा, फिर ऐसा वक़्त आए या न आए 
आओ मिल बैठो के दो-दो बात कर लें प्यार की

हाल-ए-अकबर देख कर बोले बुरी है दोस्ती
ऐसे रुसवाई, ऐसे रिन्द, ऐसे ख़ुदाई ख़्वार की
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एक बूढ़ा नहीफ़-ओ-खस्ता दराज़
इक ज़रूरत से जाता था बाज़ार
ज़ोफ-ए-पीरी से खम हुई थी कमर
राह बेचारा चलता था रुक कर
चन्द लड़कों को उस पे आई हँसी
क़द पे फबती कमान की सूझी
कहा इक लड़के ने ये उससे कि बोल
तूने कितने में ली कमान ये मोल
पीर मर्द-ए-लतीफ़-ओ-दानिश मन्द
हँस के कहने लगा कि ए फ़रज़न्द
पहुँचोगे मेरी उम्र को जिस आन
मुफ़्त में मिल जाएगी तुम्हें ये कमान

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उन्हें शौक़-ए-इबादत भी है और गाने की आदत भी
निकलती हैं दुआऎं उनके मुंह से ठुमरियाँ होकर
तअल्लुक़ आशिक़-ओ-माशूक़ का तो लुत्फ़ रखता था
मज़े अब वो कहाँ बाक़ी रहे बीबी मियाँ होकर
न थी मुतलक़ तव्क़्क़ो बिल बनाकर पेश कर दोगे
मेरी जाँ लुट गया मैं तो तुम्हारा मेहमाँ होकर
हक़ीक़त में मैं एक बुलबुल हूँ मगर चारे की ख्वाहिश में
बना हूँ मिमबर-ए-कोंसिल यहाँ मिट्ठू मियाँ होकर
निकाला करती है घर से ये कहकर तू तो मजनू है
सता रक्खा है मुझको सास ने लैला की माँ होकर


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आपसे बेहद मुहब्बत है मुझे
आप क्यों चुप हैं ये हैरत है मुझे

शायरी मेरे लिए आसाँ नहीं
झूठ से वल्लाह नफ़रत है मुझे

रोज़े-रिन्दी है नसीबे-दीगराँ
शायरी की सिर्फ़ क़ूवत है मुझे

नग़मये-योरप से मैं वाक़िफ़ नहीं
देस ही की याद है बस गत मुझे

दे दिया मैंने बिलाशर्त उन को दिल
मिल रहेगी कुछ न कुछ क़ीमत मुझे


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आँखें मुझे तल्वों से वो मलने नहीं देते
अरमान मेरे दिल का निकलने नहीं देते
ख़ातिर से तेरी याद को टलने नहीं देते
सच है कि हमीं दिल को संभलने नहीं देते
किस नाज़ से कहते हैं वो झुंझला के शब-ए-वस्ल
तुम तो हमें करवट भी बदलने नहीं देते
परवानों ने फ़ानूस को देखा तो ये बोले
क्यों हम को जलाते हो कि जलने नहीं देते
हैरान हूँ किस तरह करूँ अर्ज़-ए-तमन्ना
दुश्मन को तो पहलू से वो टलने नहीं देते
दिल वो है कि फ़रियाद से लबरेज़ है हर वक़्त
हम वो हैं कि कुछ मुँह से निकलने नहीं देते
गर्मी-ए-मोहब्बत में वो है आह से माने
पंखा नफ़स-ए-सर्द का झलने नहीं देते
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ख़ातिर से तेरी याद को टलने नहीं देते
सच है कि हमीं दिल को संभलने नहीं देते

किस नाज़ से कहते हैं वो झुंझला के शब-ए-वस्ल
तुम तो हमें करवट भी बदलने नहीं देते

परवानों ने फ़ानूस को देखा तो ये बोले
क्यों हम को जलाते हो कि जलने नहीं देते

हैरान हूँ किस तरह करूँ अर्ज़-ए-तमन्ना
दुश्मन को तो पहलू से वो टलने नहीं देते

दिल वो है कि फ़रियाद से लबरेज़ है हर वक़्त
हम वो हैं कि कुछ मुँह से निकलने नहीं देते

गर्मी-ए-मोहब्बत में वो है आह से माने'
पंखा नफ़स-ए-सर्द का झलने नहीं देते

परछाइयाँ
          जवान रात के सीने पे दूधिया आँचल
          मचल रहा है किसी ख्वाबे-मरमरीं की तरह
          हसीन फूल, हसीं पत्तियाँ, हसीं शाखें
          लचक रही हैं किसी जिस्मे-नाज़नीं की तरह
          फ़िज़ा में घुल से गए हैं उफ़क के नर्म खुतूत
          ज़मीं हसीन है, ख्वाबों की सरज़मीं की तरह

तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरतीं हैं
कभी गुमान की सूरत कभी यकीं की तरह
वे पेड़ जिन के तले हम पनाह लेते थे
खड़े हैं आज भी साकित किसी अमीं की तरह

          इन्हीं के साए में फिर आज दो धड़कते दिल
          खामोश होठों से कुछ कहने-सुनने आए हैं
          न जाने कितनी कशाकश से कितनी काविश से
          ये सोते-जागते लमहे चुराके लाए हैं

यही फ़िज़ा थी, यही रुत, यही ज़माना था
यहीं से हमने मुहब्बत की इब्तिदा की थी
धड़कते दिल से लरज़ती हुई निगाहों से
हुजूरे-ग़ैब में नन्हीं सी इल्तिजा की थी
कि आरज़ू के कंवल खिल के फूल हो जायें
दिलो-नज़र की दुआयें कबूल हो जायें

          तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं

तुम आ रही हो ज़माने की आँख से बचकर
नज़र झुकाये हुए और बदन चुराए हुए
खुद अपने कदमों की आहट से, झेंपती, डरती,
खुद अपने साये की जुंबिश से खौफ खाए हुए

          तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं

रवाँ है छोटी-सी कश्ती हवाओं के रुख पर
नदी के साज़ पे मल्लाह गीत गाता है
तुम्हारा जिस्म हर इक लहर के झकोले से
मेरी खुली हुई बाहों में झूल जाता है

          तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं

मैं फूल टाँक रहा हूँ तुम्हारे जूड़े में
तुम्हारी आँख मुसर्रत से झुकती जाती है
न जाने आज मैं क्या बात कहने वाला हूँ
ज़बान खुश्क है आवाज़ रुकती जाती है

          तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं

मेरे गले में तुम्हारी गुदाज़ बाहें हैं
तुम्हारे होठों पे मेरे लबों के साये हैं
मुझे यकीं है कि हम अब कभी न बिछड़ेंगे
तुम्हें गुमान है कि हम मिलके भी पराये हैं।

          तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं

मेरे पलंग पे बिखरी हुई किताबों को,
अदाए-अज्ज़ो-करम से उठ रही हो तुम
सुहाग-रात जो ढोलक पे गाये जाते हैं,
दबे सुरों में वही गीत गा रही हो तुम

          तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं

वे लमहे कितने दिलकश थे वे घड़ियाँ कितनी प्यारी थीं,
वे सहरे कितने नाज़ुक थे वे लड़ियाँ कितनी प्यारी थीं

बस्ती को हर-एक शादाब गली, रुवाबों का जज़ीरा थी गोया
हर मौजे-नफ़स, हर मौजे सबा, नग़्मों का ज़खीरा थी गोया

नागाह लहकते खेतों से टापों की सदायें आने लगीं
बारूद की बोझल बू लेकर पच्छम से हवायें आने लगीं

तामीर के रोशन चेहरे पर तखरीब का बादल फैल गया
हर गाँव में वहशत नाच उठी, हर शहर में जंगल फैल गया

मग़रिब के मुहज़्ज़ब मुल्कों से कुछ खाकी वर्दी-पोश आये
इठलाते हुए मग़रूर आये, लहराते हुए मदहोश आये

खामोश ज़मीं के सीने में, खैमों की तनाबें गड़ने लगीं
मक्खन-सी मुलायम राहों पर बूटों की खराशें पड़ने लगीं

फौजों के भयानक बैंड तले चर्खों की सदायें डूब गईं
जीपों की सुलगती धूल तले फूलों की क़बायें डूब गईं

इनसान की कीमत गिरने लगी, अजनास के भाओ चढ़ने लगे
चौपाल की रौनक घटने लगी, भरती के दफ़ातर बढ़ने लगे

बस्ती के सजीले शोख जवाँ, बन-बन के सिपाही जाने लगे
जिस राह से कम ही लौट सके उस राह पे राही जाने लगे

इन जाने वाले दस्तों में ग़ैरत भी गई, बरनाई भी
माओं के जवां बेटे भी गये बहनों के चहेते भाई भी

बस्ती पे उदासी छाने लगी, मेलों की बहारें ख़त्म हुई
आमों की लचकती शाखों से झूलों की कतारें ख़त्म हुई

धूल उड़ने लगी बाज़ारों में, भूख उगने लगी खलियानों में
हर चीज़ दुकानों से उठकर, रूपोश हुई तहखानों में

बदहाल घरों की बदहाली, बढ़ते-बढ़ते जंजाल बनी
महँगाई बढ़कर काल बनी, सारी बस्ती कंगाल बनी

चरवाहियाँ रस्ता भूल गईं, पनहारियाँ पनघट छोड़ गईं
कितनी ही कंवारी अबलायें, माँ-बाप की चौखट छोड़ गईं

इफ़लास-ज़दा दहकानों के हल-बैल बिके, खलियान बिके
जीने की तमन्ना के हाथों, जीने ही के सब सामान बिके
कुछ भी न रहा जब बिकने को जिस्मों की तिजारत होने लगी
ख़लवत में भी जो ममनूअ थी वह जलवत में जसारत होने लगी

          तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं

तुम आ रही हो सरे-आम बाल बिखराये हुये
हज़ार गोना मलामत का बार उठाये हुए
हवस-परस्त निगाहों की चीरा-दस्ती से
बदन की झेंपती उरियानियाँ छिपाए हुए

          तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं

मैं शहर जाके हर इक दर में झाँक आया हूँ
किसी जगह मेरी मेहनत का मोल मिल न सका
सितमगरों के सियासी क़मारखाने में
अलम-नसीब फ़िरासत का मोल मिल न सका

          तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं

तुम्हारे घर में क़यामत का शोर बर्पा है
महाज़े-जंग से हरकारा तार लाया है
कि जिसका ज़िक्र तुम्हें ज़िन्दगी से प्यारा था
वह भाई 'नर्ग़ा-ए-दुश्मन' में काम आया है

          तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं

हर एक गाम पे बदनामियों का जमघट है
हर एक मोड़ पे रुसवाइयों के मेले हैं
न दोस्ती, न तकल्लुफ, न दिलबरी, न ख़ुलूस
किसी का कोई नहीं आज सब अकेले हैं

          तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं

वह रहगुज़र जो मेरे दिल की तरह सूनी है
न जाने तुमको कहाँ ले के जाने वाली है
तुम्हें खरीद रहे हैं ज़मीर के कातिल
उफ़क पे खूने-तमन्नाए-दिल की लाली है

          तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं

सूरज के लहू में लिथड़ी हुई वह शाम है अब तक याद मुझे
चाहत के सुनहरे ख़्वाबों का अंजाम है अब तक याद मुझे

उस शाम मुझे मालूम हुआ खेतों की तरह इस दुनियाँ में
सहमी हुई दोशीज़ाओं की मुसकान भी बेची जाती है

उस शाम मुझे मालूम हुआ, इस कारगहे-ज़रदारी में
दो भोली-भाली रूहों की पहचान भी बेची जाती है

उस शाम मुझे मालूम हुआ जब बाप की खेती छिन जाये
ममता के सुनहरे ख्वाबों की अनमोल निशानी बिकती है

उस शाम मुझे मालूम हुआ, जब भाई जंग में काम आये
सरमाए के कहबाख़ाने में बहनों की जवानी बिकती है

सूरज के लहू में लिथड़ी हुई वह शाम है अब तक याद मुझे
चाहत के सुनहरे ख्वाबों का अंजाम है अब तक याद मुझे

तुम आज ह्ज़ारों मील यहाँ से दूर कहीं तनहाई में
                         या बज़्मे-तरब आराई में
मेरे सपने बुनती होगी बैठी आग़ोश पराई में।

और मैं सीने में ग़म लेकर दिन-रात मशक्कत करता हूँ,
                         जीने की खातिर मरता हूँ,
अपने फ़न को रुसवा करके अग़ियार का दामन भरता हूँ।

मजबूर हूँ मैं, मजबूर हो तुम, मजबूर यह दुनिया सारी है,
                         तन का दुख मन पर भारी है,
इस दौरे में जीने की कीमत या दारो-रसन या ख्वारी है।

मैं दारो-रसन तक जा न सका, तुम जहद की हद तक आ न सकीं
                         चाहा तो मगर अपना न सकीं
हम तुम दो ऐसी रूहें हैं जो मंज़िले-तस्कीं पा न सकीं।

जीने को जिये जाते हैं मगर, साँसों में चितायें जलती हैं,
                         खामोश वफ़ायें जलती हैं,
संगीन हक़ायक़-ज़ारों में, ख्वाबों की रिदाएँ जलती हैं।

और आज इन पेड़ों के नीचे फिर दो साये लहराये हैं,
                         फिर दो दिल मिलने आए हैं,
फिर मौत की आंधी उट्ठी है, फिर जंग के बादल छाये हैं,

मैं सोच रहा हूँ इनका भी अपनी ही तरह अंजाम न हो,
                         इनका भी जुनू बदनाम न हो,
इनके भी मुकद्दर में लिखी इक खून में लिथड़ी शाम न हो॥

सूरज के लहू में लिथड़ी हुई वह शाम है अब तक याद मुझे
चाहत के सुनहरे ख्वाबों का अंजाम है अब तक याद मुझे॥

हमारा प्यार हवादिस की ताब ला न सका,
मगर इन्हें तो मुरादों की रात मिल जाये।

हमें तो कश्मकशे-मर्गे-बेअमा ही मिली,
इन्हें तो झूमती गाती हयात मिल जाये॥

बहुत दिनों से है यह मश्ग़ला सियासत का,
कि जब जवान हों बच्चे तो क़त्ल हो जायें।

बहुत दिनों से है यह ख़ब्त हुक्मरानों का,
कि दूर-दूर के मुल्कों में क़हत बो जायें॥

बहुत दिनों से जवानी के ख्वाब वीराँ हैं,
बहुत दिनों से मुहब्बत पनाह ढूँढती है।

बहुत दिनों में सितम-दीद शाहराहों में,
निगारे-ज़ीस्त की इस्मत पनाह ढूँढ़ती है॥

चलो कि आज सभी पायमाल रूहों से,
कहें कि अपने हर-इक ज़ख्म को जवाँ कर लें।

हमारा राज़, हमारा नहीं सभी का है,
चलो कि सारे ज़माने को राज़दाँ कर लें॥

चलो कि चल के सियासी मुकामिरों से कहें,
कि हम को जंगो-जदल के चलन से नफ़रत है।

जिसे लहू के सिवा कोई रंग रास न आये,
हमें हयात के उस पैरहन से नफ़रत है॥

कहो कि अब कोई कातिल अगर इधर आया,
तो हर कदम पे ज़मीं तंग होती जायेगी।

हर एक मौजे हवा रुख बदल के झपटेगी,
हर एक शाख रगे-संग होती जायेगी॥

उठो कि आज हर इक जंगजू से कह दें,
कि हमको काम की खातिर कलों की हाजत है।

हमें किसी की ज़मीं छीनने का शौक नहीं,
हमें तो अपनी ज़मीं पर हलों की हाजत है॥

कहो कि अब कोई ताजिर इधर का रुख न करे,
अब इस जा कोई कंवारी न बेची जाएगी।

ये खेत जाग पड़े, उठ खड़ी हुई फ़सलें,
अब इस जगह कोई क्यारी न बेची जायेगी॥

यह सर ज़मीन है गौतम की और नानक की,
इस अर्ज़े-पाक पे वहशी न चल सकेंगे कभी।

हमारा खून अमानत है नस्ले-नौ के लिए,
हमारे खून पे लश्कर न पल सकेंगे कभी॥

कहो कि आज भी हम सब अगर खामोश रहे,
तो इस दमकते हुए खाकदाँ की खैर नहीं।

जुनूँ की ढाली हुई ऐटमी बलाओं से,
ज़मीं की खैर नहीं आसमाँ की खैर नहीं॥

गुज़श्ता जंग में घर ही जले मगर इस बार,
अजब नहीं कि ये तनहाइयाँ भी जल जायें।

गुज़श्ता जंग में पैकर जले मगर इस बार,
अजब नहीं कि ये परछाइयाँ भी जल जायें॥
- साहिर लुधियानवी

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