Sunday 21 July 2013

बहादुरशाह जफर



बहादुरशाह जफर

अंतिम मुगल शासक और जाने-माने शायर बहादुरशाह जफर का जन्म 1775 में हुआ था। जफर उनका तखल्लुस था, जिसका मतलब होता है विजय। इसी नाम से उन्होंने तमाम .गालें लिखीं। 1857 की क्रांति उन्हीं के शासन में हुई थी। माना जाता है कि इसी क्रांति के दौरान उनकी काफी रचनाएं नष्ट हो गई थीं। 1862 में 87 साल की उम्र में उनका इंतकाल हो गया। 


हिंदियों में बू रहेगी, जब तलक ईमान की
तख्त-ए-लंदन पर चलेगी, तेग हिन्दुस्तान की।

तेग : तलवार

जलाया यार ने ऐसा, कि हम वतन से चले
बतौर शमा के रोते, इस अंजुमन से चले।

न किसी की आंख का नूर हूं, न किसी के दिल का .करार हूं
जो किसी के काम न आ सके, मैं वो एक मुश्त-ए-.गुबार हूं।

कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें
इतनी जगह कहां है दिल-ए-दा.गदार में।

न मालो हु.कूमत न धन जाएगा
तेरे साथ बस एक कफन जाएगा।

उम्र-ए-दराज मांग कर लाए थे चार दिन
दो आरजू में कट गए, दो इंतजार में।

हमने दुनिया में आकर क्या देखा
देखा जो कुछ सो ख्वाब सा देखा।

कीजिए न दस में बैठकर आपस की बातचीत
पहुंचती दस हजार जगह दस की बातचीत।

हर बात में उसकी गर्मी है, हर नाज में उसके शोखी है।
आमद है .कयामत चाल भरी, चलने की फड़क फिर वैसी है।

सुबह रो-रो के शाम होती है
शब तड़प के तमाम होती है।

कितना है बदनसीब 'जफर' दफ्न के लिए
दो गज जमीन भी न मिली कू-ए-यार में।

खुलता नहीं है हाल, किसी पर कहे ब.गैर
पर दिल की जान लेते हैं, दिलबर कहे ब.गैर।

क्या ताब क्या मशाल हमारी कि बोसा लें
लब को तुम्हारे लब से मिलाकर कहे बगैर।
ताब : ताकत

बात करनी मुझे मुश्किल, कभी ऐसी तो न थी
जैसी अब है तेरी महफिल, कभी ऐसी तो न थी।

मुलक की मिट्टी की चादर कहां?
जफर तू तो अब बे वतन जाएगा।

देखते हैं ख्वाब में जिस दिन किसू की चश्म-ए-मस्त
रहते हैं हम दो जहां से बेखबर दो दिन तलक
किसू : कोई
चश्म ए मस्त : मदमस्त आंखें

नरेशकुमारशाद

नरेशकुमारशाद ने एकदम आम भाषा में जो ग़जल लिखीं,वे बहुत लोकप्रिय हुईं। लेकिन क़ता और रुवाइयां उनकी खासियतें थीं। शाद एक पत्रकार भी थे और 'चंदन'के सह संपादक रहे। मुजफ्फरनगर के नजदीक याहयापुर में 27 नवंबर (मंगलवार को जन्मदिन) 1927 कोपैदा हुए शाद की बहुत ज्यादा शराब पीने के कारण 1969 में केवल 42 साल की उम्र में मौत हो गई।

मैंनेहरगमखुशीमेंढालाहै,
मेराहरचलननिरालाहै
लोगजिनहादसोंसेमरतेहैं,
मुझकोउनहादसोंनेपालाहै।

हर कली मस्ते खब हो जाती,
पत्ती-पत्ती गुलाब हो जाती
तूने डाली  मैं-फशां नज़रें
वरना शबनम शराब हो जाती
(मैं-फशांनशीलीशबनमः ओस की बूंद)

जिंदगीअपनेआईनेमेंतुझे
अपनाचेहरानारनहींआता
जुल्मकरनातोतेरीआदतहै
जुल्मसहनामगरनहींभाता

तूने तो जिस्म ही को बेचा है
एक फाके को टालने के लिए
लोग यज़दां  बेच देते हैं
अपना मतलब निकालने के लिए
(यजदांखुदा)

दीवारक्यागिरीमेरेकच्चेमकानकी,
लोगोंनेमेरेसहनसेरस्तेबनालिए।
(सहनआँगन)

करम ऐसे किये हैं दोस्तों ने कि
हर दुश्मन पै यार आने लगा है।

हरहसींकाफिरांकेमाथेपर
अपनीरहमतकाताजरखताहै
तूभीपरवरदिगारमेरीतरह
आशिकानामिज़ाजरखताहै
(हसींकाफिरांबहुतसुन्दरपरवरदिगारईश्वर)

मजरूह सुल्तानपुरी

मजरूह सुल्तानपुरी
जन्म: 1 अक्टूबर 1919
इंतकाल: 24 मई 2000
मशहूर शायर मजरूह सुल्तानपुरी की शायरी और फिल्मी नग्मों में जमीन से गहराई तक जुड़े उनके सरोकारों की छाप मिलती है। इसके अलावा, उन्होंने इश्क के तरानों को भी अपनी लेखनी से नए आयाम दिए हैं।


मैं अकेला ही चला था जानिबे-मंजिल मगर

लोग आते गए और कारवां बनता गया


बचा लिया मुझे तूफां की मौज ने वर्ना

किनारे बाले सफीना मेरा डुबो देते (सफीना - नाव)


रहते थे कभी जिनके दिल में, हम जान से भी प्यारों की तरह

बैठे हैं उन्हीं के कूंचे में हम, आज गुनहगारों की तरह


दुनिया करे सवाल तो हम क्या जवाब दें,

तुमको ना हो ख्याल तो हम क्या जवाब दें ...


जफा के नाम पर तुम क्यों संभलकर बैठ गए,

तुम्हारी बात नहीं, बात है जमाने की। (जफा : जुल्म)

पहले सौ बार इधर और उधर देखा है

तब कहीं डर के तुम्हें एक नार देखा है


क्या ग़लत है जो मैं दीवाना हुआ, सच कहना

मेरे महबूब को तुम ने भी अगर देखा है


ये आग और नहीं दिल की आग है नादां

चिराग हो के न हो, जल बुझेंगे परवाने


शमा भी, उजाला भी मैं ही अपनी महफिल का

मैं ही अपनी मंजिल का राहबर भी, राही भी


मिली जब उनसे नार, बस रहा था एक जहां

हटी निगाह तो चारों तरफ थे वीराने


तकदीर का शिकवा बेमानी, जीना ही तुझे मंजूर नहीं

आप अपना मुकद्दर बन न सके इतना तो कोई मजबूर नहीं

दाग देहलवी

दाग देहलवी

जन्म : 1831
मृत्यु : 1865
उर्दू शायरी में एक अहम नाम। सहज और पारदर्शी भाषा के साथ नाटकीय अंदाज में बारीक खयालों के इजहार के लिए मशहूर हुए।

दिल लेके मुफ्त कहते हैं, कुछ काम का नहीं
उल्टी शिकायतें हुईं, अहसान तो गया

मिलाते हो उसी को खाक में, जो दिल से मिलता है
मेरी जां चाहने वाला, बड़ी मुश्किल से मिलता है

बारहा उसने सफाई हमसे की
कुछ खलिश* हर बार बाकी रह गई

एक तो हुस्न बला, उस पे बनावट आफत
घर बिगाड़ेंगे हजारों के, संवरने वाले

ऐ .फलक चाहिए जी भर के नजारा हमको
जाके आना नहीं दुनिया में दोबारा हमको

आंखों से लड़े गेसु-ए-खमदार* से उलझे
ये हारते दिल रोज ही दो चार से उलझे

.फलक* देता है जिनको ऐश उनको गम भी होते हैं
जहां बजते हैं नक्कारे, वहां मातम भी होते हैं

खुदा जब दोस्त है ऐ दाग, क्या दुश्मन से अंदेशा
हमारा कुछ किसी की दुश्मनी से हो नहीं सकता

जो हो आगाज* में बेहतर, वो खुशी है बदतर
जिसका अंजाम हो अच्छा, वो मुसीबत अच्छी

दुनिया में कोई लुत्फ करे या जफा*
जब मैं न हूं बला से मेरी कुछ हुआ करे
मुश्किल शब्दों के अर्थ :
.खलिश* = तकलीफ, गेसु-ए-.खमदार* = बलखाई जुल्फें, फलक* = आसमान, आगाज* = शुरुआत, जफा* = बेवफाई।

निदा फाज़ली

निदा फाज़ली

जन्म: 
12 अक्टूबर, 1938

उर्दू के जाने-माने शायर। आधुनिक उर्दू कविता को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाने में अहम किरदार। फिल्मों के लिए कई चर्चित गीत भी लिखे हैं। 1998 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित हुए। चंद शेर:

घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूं कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए

दिल में न हो जुअर्त* तो मुहब्बत नहीं मिलती
खैरात में इतनी बड़ी दौलत नहीं मिलती

उसके दुश्मन हैं बहुत, आदमी अच्छा होगा
वो भी मेरी ही तरह शहर में तन्हा होगा

मुंह की बात सुने हर कोई, दिल के दर्द को जाने कौन
आवाजों के बाजारों में, .खामोशी पहचाने कौन

हर आदमी में होते हैं, दस-बीस आदमी
जिसको भी देखना हो, कई बार देखना

जब किसी से कोई गिला* रखना
सामने अपने आईना रखना

दुश्मनी लाख सही, खत्म न कीजे रिश्ता
दिल मिले न मिले, हाथ मिलाते रहिए

हर तरफ हर जगह बेशुमार आदमी
फिर भी तन्हाइयों का शिकार आदमी

कुछ तबीयत ही मिली थी ऐसी, चैन से जीने की सूरत नहीं हुई
जिसको चाहा उसे अपना न सके, जो मिला उससे मुहब्बत न हुई

किसी को टूट के चाहा, किसी से खिंच के रहे
दुखों की राहतें झेलीं, खुशी के दर्द सहे

मुमकिन है सफर हो आसां, अब साथ भी चल कर देखें
कुछ तुम भी बदल कर देखो, कुछ हम भी बदल कर देखें

तू इस तरह से मेरी जिदिगी में शामिल है
जहां भी जाऊं, ये लगता है, तेरी मह.फल है

कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता
कहीं जमीन, कहीं आस्मां नहीं मिलता

मुश्किल शब्दों के अर्थ : जुअर्त* = साहस, गिला* = शिकायत। 

जिगर मुरादाबादी

उर्दू ग़ाल का एक नायाब नाम। मीर और .गालिब के बाद जिस एक शायर ने बहुत कम लफ्जोंमें गहरी बात पैदा करने की काबिलियत पाई, उनमें फिराक गोरखपुरी के साथ जिगर मुरादाबादी का नाम भी शुमार किया जाता है। उन्हें उनके गजल-संग्रह, 'आतिश-ए-गुल' के लिए साल 1985 का साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला।
जन्म: 6 अप्रैल, 1890
मृत्यु: 9 सितंबर, 1960

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इक लफ्जे-मोहब्बत का अदना ये फसाना है
सिमटे तो दिल-ए-आशिक फैले तो जमाना है

वो थे न मुझसे दूर न मैं उनसे दूर था
आता न था नार को नार का .कुसूर था

निगाहों से छुप कर कहां जाइएगा
जहां जाइएगा, हमें पाइएगा

दिल में किसी के राह किए जा रहा हूं मैं
कितना हसीं गुनाह किए जा रहा हूं मैं

आंखों में बस के दिल में समा कर चले गए
ख्वाबिदा जिन्दगी थी जगा कर चले गए

(ख्वाबिदा= ख्वाब की तरह)

लाखों में इंतख़ाब के .काबिल बना दिया
जिस दिल को तुमने देख लिया दिल बना दिया

(इंतख़ाब = चयन)

चाहता है इश्क, राजे इश्क उरियां कीजिए
यानी .खुद खो जाइए उनको नुमायां कीजिए

(उरियां = प्रकट, नुमायां = उजागर)

मुमकिन नहीं कि जबा-ए-दिल कारगर न हो
ये और बात है तुम्हें अब तक .खबर न हो

(जबा-ए-दिल = मनोभावना)

आदमी आदमी से मिलता है
दिल मगर कम किसी से मिलता है

फुर्सत कहां कि छेड़ करें आसमां से हम
लिपटे पड़े हैं लज़ते-ददेर्-निहां से हम

(लज़ते-दर्दे-निहां = मन की तकलीफ के आनंद में)

न जां दिल बनेगी न दिल जान होगा
ग़मे-इश्क़ ख़ुद अपना उन्वां होगा

(उन्वां = शीर्षक)

मुहब्बत में हम तो जिए हैं जिएंगे
वो होंगे कोई और मर जाने वाले

मोहब्बत में क्या-क्या मुक़ाम आ रहे हैं
कि मंजिल पे हैं और चले जा रहे हैं 

'मजाज़' लखनवी

'मजाज़' लखनवी का मूल नाम असरारुल हक़ था। उनका जन्म यूपी के रुदौली कस्बे में 1911 में हुआ था। 5 दिसंबर (बुधवार) को उनकी पुण्यतिथि है। कुल 44 बरस जीनेवाले मजाज़ ने उर्दू शायरी में जो मकाम हासिल किया, वह बहुतों के हिस्से नहीं आया। मजाज़ की मकबूलियत का आलम यह था कि उनकी नज़्में दूसरी भाषाओं में भी खूब सराही गई। खुद उर्दू में उन्होंने भाषा के नए पैमाने गढ़े। 
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हाय वह वक्त कि बेपिये बेहोशी थी,
हाय यह वक्त कि पीकर भी मख्मूर नहीं।
(मख्मूर- नशे में चूर)


इश्क का ज़ौके-नज़ारा मुफ्त को बदनाम है,
हुस्न खुद बेताब है जलवा दिखाने के लिए।

(ज़ौके-नज़ाराः देखने का शौक़)

बहुत मुश्किल है दुनियां का संवरना
तिरी जुल्फों का पेचो-ख़म नहीं है।


आंख से आंख जब नहीं मिलती
दिल से दिल हमकलाम होता है
(हमकलामः आपसी बातचीत करनेवाले)

ख़ुद दिल में रखके आंख से पर्दा करे कोई
हां लुफ्त जब है पा के भी ढूंढा करे कोई।


लाख छिपाते हो मगर छिपके भी मस्तूर नहीं
तुम अजब चीज़ हो, नजदीक नहीं दूर नहीं
(मस्तूर-प्रकट)

हुस्न को नाहक पशेमां कर दिया
दे जुनूं ये भी कोई अंदाज है।
(पशेमां=शर्मिंदा)


कुछ तुम्हारी निगाह काफ़िर थी
कुछ मुझे भी ख़राब होना था

तुझी से तुझे छीनना चाहता हूं
ये क्या चाहता हूं, ये क्या चाहता हूं।


तेरे गुनहगार, गुनहगार ही सही
तेरे करम की आस लगाए हुए तो हैं।

ये रंग-बहार-आलम है
क्यों फ़िक्र है तुझको ऐ साकी!
मह़फिल तो तेरी सूना न हुई कुछ उठ भी गए, कुछ आ भी गए।


उनका करम है उनकी मुहब्बत 
क्या मेरे नग़्मे, क्या मेरी हस्ती।

ये तो क्या कहिए चला था मैं कहां से हमदम
मुझको ये भी न था मालूम, किधर जाना था


चारागरी सर-आंखों पर, इस चारागरी से क्या होगा
दर्द की अपनी आप दवा है, तुमसे क्या अच्छा होगा
(चारागरी=इलाज)

कुछ तुम्हारी निगाह काफ़िर थी
कुछ मुझे भी ख़राब होना था

फैज़ अहमद फैज़



उर्दू की आधुनिक शायरी में फैज़ अहमद फैज़ की हैसियत एक बेमिसाल शायर की है। उनके कलाम बेहद मकबूल हुए। वामपंथी विचारों के समर्थक रहे फैज़ की कविता हकीकत के तीखे अहसास, बदलाव और प्रेम की जमीन पर उपजी है। उनका जन्म 13 फरवरी, 1911 को सियालकोट में हुआ था और इंतकाल 20 नवंबर (मंगलवार) 1984 को हुआ।
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हमने सब शेर में संवारे थे
हमसे जितने सुखन तुम्हारे थे
 (सुखनः बातचीत)

मरने के बाद भी मेरी आंखें खुली रहीं,
आदत जो पड़ गई थी तेरे इंतजार की

वो लोग बहुत खुशकिस्मत थे, जो इश्क को काम समझते थे
या काम से आशिकी करते थे, हम जीते जी मसरूफ रहे
कुछ इश्क किया, कुछ काम किया
 (मशरूफः व्यस्त)

दिल नाउम्मीद तो नहीं, नाकाम ही तो है
लंबी है गम की शाम, मगर शाम ही तो है।

जिंदगी क्या किसी मुफलिस की कबा है,
जिसमें हर घड़ी दर्द के पैबन्द लगे जाते हैं।

(मुफलिसः गरीब, कबाः लंबा चोगा)

आये तो यूं कि जैसे हमेशा थे मेहरबां,
भूले तो यूं कि जैसे कभी आश्ना न थे। (आश्नाः परिचित)

आदमियों से भरी है यह सारी दुनिया मगर,
आदमी को आदमी होता नहीं दस्तयाब। 
(दस्तयाबः उपलब्ध)

जो गुज़र गई हैं रातें, उन्हें फिर जगा के लाएं
जो बिसर गई हैं बातें, उन्हें याद में बुलाएं
चलो फिर से दिल लगाएं, चलो फिर से मुस्कराएं

बात बस से निकल चली है
दिल की हालत संभल चली है
अब जुनूं हद से बढ़ चला है
अब तबीयत बहल चली है


निसार मैं तेरी गलियों के ऐ वतन, कि जहां
चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले

इकबाल

खुदी को कर बुलन्द इतना कि हर तकदीर से पहले,
खुदा बंदे से खुद पूछे बता तेरी रजा क्या है।

(रजा - इच्छा, तमन्ना, ख्वाहिश)

जफा जो इश्क में होती है वह जफा ही नहीं,
सितम न हो तो मुहब्बत में कुछ मजा ही नहीं।


(जफा - जुल्म)

ढूंढता रहता हूं ऐ 'इकबाल' अपने आप को,
आप ही गोया मुसाफिर, आप ही मंजिल हूं मैं।


दिल की बस्ती अजीब बस्ती है,
लूटने वाले को तरसती है।


मिटा दे अपनी हस्ती को गर कुछ मर्तबा चाहिए
कि दाना खाक में मिलकर, गुले-गुलजार होता है।

(मर्तबा - इज्जत, पद)

मुझे रोकेगा तू ऐ नाखुदा क्या गर्क होने से,
कि जिसे डूबना हो, डूब जाते हैं सफीनों में।

(1. नाखुदा - मल्लाह, नाविक 2. गर्क - डूबना 3. सफीना - नौका)

हजारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पे रोती है,
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा।
(दीदावर - पारखी)

खुदा के बन्दे तो हैं हजारों बनो में फिरते हैं मारे-मारे
मैं उसका बन्दा बनूंगा जिसको खुदा के बन्दों से प्यार होगा


सितारों से आगे जहां और भी हैं
अभी इश्क के इम्तिहां और भी हैं


सख्तियां करता हूं दिल पर गैर से गाफिल हूं मैं
हाय क्या अच्छी कही जालिम हूं, जाहिल हूं मैं 

(गाफिल - अनजान)

साकी की मुहब्बत में दिल साफ हुआ इतना
जब सर को झुकाता हूं शीशा नजर आता है


मुमकिन है कि तू जिसको समझता है बहारां
औरों की निगाहों में वो मौसम हो खिजां का

नजीर अकबराबादी



हर आन में, हर बात में, हर रंग ढंग में पहचान
आशिक है तो दिलबर को हर एक रंग में पहचान


है चाह .फकत एक दिलबर की,
फिर और किसी की चाह नहीं
एक राह उसी से रखते हैं,
फिर और किसी से राह नहीं

उस जुल्फ के फंदे में यों कौन अटकता है
ज्यों चोर किसी रस्से से लटकता है
कांटे की तरह दिल में .गम आके खटकता है
यह कहके 'नासिर' सर .गम से पटकता है
दिल बंद हुआ यारो! देखो तो कहां जाकर


नजीर! एक दो गिले करने बहुत होते हैं .खूबां से
चलो अब चुप रहो बस, खोल बैठे तुम तो दफ्तर सा

(.खूबां : प्रियतम से)

रोटी न पेट में हो, तो फिर कुछ जतन न हो
मेल की सैर ख्वाहिश-ए-बाग-ए-चमन न हो
भूके .गरीब दिल की खु़दा से लगन न हो
सच है कहा किसी ने कि भूके भजन न हो
अल्लाह की भी याद दिलाती हैं रोटियां


अपने नफे के वास्ते, मत और का नु.कसान कर
तेरा भी नु.कसान होवेगा, इस बात ऊपर ध्यान कर

यह धूम धड़क्का साथ लिए, क्यों फिरता है जंगल-जंगल
एक तिनका साथ न जावेगा, मौ.कू.फ हुआ जब अन्न और जल
घर-बार, अटारी, चौबारे, क्या .खासा, तनसुख और म.खमल
क्या चिलमन-पर्दे, फर्श नए, क्या लाल पलंग और रंग महल
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा, जब लाद चलेगा बनजारा

(मौकूफ = बंद होना, .खासा = कपड़े की एक किस्म)


है दुनिया जिसका नाम मियां, ये और तरह की बस्ती है
जो महंगों को तो महंगी है, और सस्तों को ये सस्ती है
यां हरदम झगड़े उठते हैं, हर आन अदालत कस्ती है
गर मस्त करे तो मस्ती है, और पस्त करे तो पस्ती है

दुनिया में अपना जी कोई बहला के मर गया
दिल तंगियों से और कोई उकता के मर गया
आकिल था वो, तो आप को समझा के मर गया
बेअक्ल छाती कूट के, घबरा के मर गया
दुख पा के मर गया, कोई सुख पा के मर गया
जीता रहा न कोई, हर एक आ के मर गया

(आकिल = समझदार)

इब्ने इंशा



हम घूम चुके बस्ती-बन में
इक आस का फांस लिए मन में
कोई साजन हो, कोई प्यारा हो
कोई दीपक हो, कोई तारा हो

जब जीवन-रात अंधेरी हो
इक बार कहो तुम मेरी हो


ये तो कहो कभी इश्क़ किया है
जग में हुए हो रुसवा भी
इस के सिवा हम कुछ भी न पूछें
बाक़ी बात फिजूल मियां
(रुसवा = जगहंसाई)


अपनी ज़ुबां से कुछ न कहेंगे
चुप ही रहेंगे आशिक़ लोग
तुम से तो इतना हो सकता है
पूछो हाल बेचारों का


फर्ज़ करो ये जोग बिजोग का
हमने ढोंग रचाया हो
फर्ज़ करो बस यही हक़ीक़त
बाक़ी सब कुछ माया हो


कहा ये सब्र ने दिल से, के लो ख़ुदाहाफ़िज़,
के हक़-ए-बंदगी अपना, तमाम मैंने किया


और बहुत से रिश्ते तेरे और बहुत से तेरे नाम
आज तो एक हमारे रिश्ते महबूबा कहलाती जा


अच्छा जो ख़फ़ा हम से हो तुम ऐ सनम अच्छा,
लो हम भी न बोलेंगे ख़ुदा की क़सम अच्छा


कूचे को तेरे छोड़ कर, जोगी ही बन जाएं मगर
जंगल तेरे, पर्वत तेरे, बस्ती तेरी, सहरा तेरा
(सहरा = रेगिस्तान)


बेशक, उसी का दोष है, कहता नहीं ख़ामोश है,
तू आप कर ऐसी दवा, बीमार हो अच्छा तेरा


और तो कोई बस न चलेगा
हिज्र के दर्द के मारों का
सुबह का होना दूभर कर दें
रस्ता रोक सितारों का


दफ़्तर से उठे कैफ़े में गए,
कुछ शेर कहे कुछ कॉफ़ी पी
पूछो जो मआश का इंशा जी
यूं अपना गुज़ारा होता है
(मआश = आजीविका)


इंशा जी उठो अब कूच करो,
इस शहर में जी का लगाना क्या
वहशी को सुकूं से क्या मतलब,
जोगी का नगर में ठिकाना क्या

'असग़र' गोंडवी

पहली नजर भी आपकी, उफ़! किस बला की थी
हम आज तक वह चोट हैं, दिल पर लिए हुए

जीना भी आ गया, मुझे मरना भी आ गया
पहिचानने लगा हूं, तुम्हारी नजर को मैं

अगर ख़ामोश रहूं मैं, तो तू ही सब कुछ है
जो कुछ कहा तो तेरा, हुस्न हो गया महदूद
(महदूद = सीमित)

यह भी फ़रेब से हैं, कुछ दर्द-ए-आशिक़ी के
हम मरके क्या करेंगे, क्या कर लिया है जीके?

बारेअलम उठाया, रंगेनिशात देखा
आए नहीं हैं यूं ही, अंदाज़ बेहिसी के
(बारेअलम = दुख का बोझ , रंगेनिशात = समृद्धि के अनुभव, बेहिसी = बेहोशी)

वे इश्क़ की आमत से, शायद नहीं वाक़फ हैं
सौ हुस्न करूं पैदा, एक-एक तमन्ना से
(आमत = महानता)

सौ बार तेरा दामन, हाथों में मेरे आया
जब आंख खुली देखा, अपना ही गिरेबां है

दास्तां उनकी आदाओं की है रंगीं, लेकिन
उसमें कुछ खून-ए-तमन्ना भी है शामिल मेरा

ऐ काश! मैं हक़ीक़त-ए-हस्ती न जानता
अब लुत्फ़-ए-ख़्वाब भी नहीं अहसास-ए-ख़्वाब में

ख़स्तगी ने कर दिया उसको रग-ए-जां से क़रीब
जुस्तजू ज़ालिम कहे जाती थी, मंजिल दूर नहीं
(जुस्तजू = तलाश)

उभरना हो जहां, जी चाहता है डूब मरने को
जहां उठती हो मौजें, हम वहां साहिल समझते हैं
(साहिल = लहर)

सुनता हूं बड़े ग़ौर से अफ़सान-ए-हस्ती
कुछ ख़्वाब हैं, कुछ अस्ल है, कुछ तर्ज-ए-अदा है

आलम की फ़जा पूछो, महरूम-ए-तमन्ना से
बैठा हुआ दुनिया में, उठ जाए जो दुनिया से
(महरूम-ए-तमन्ना = इच्छावंचित)

चला जाता हूं हंसता-खेलता, मौज-ए-हवादिस से
अगर आसानियां हो, ज़िंदगी दुश्वार हो जाए
(हवादिस = मुसीबतें)

अल्ताफ़ हुसैन हाली

जहां में 'हाली' किसी पे अपने सिवा भरोसा न कीजिएगा
ये भेद है अपनी जिन्दगी का बस इसकी चर्चा न कीजिएगा

इसी में है खै़र हजरते-दिल,
कि यार भूला हुआ है हमको
करे वो याद इसकी भूल कर भी
कभी तमन्ना न कीजिएगा


हक़ वफ़ा का जो हम जताने लगे
आप कुछ कहके मुस्कराने लगे


डर है मेरी जुबान न खुल जाए
अब वो बातें बहुत बनाने लगे


है उल्फ़त भी वहशत भी दुनिया से लाज़िम
पै उल्फ़त ज़ियादा न वहशत जियादा
(उल्फ़तः चाहत, वहशतः जुनून)


मुसीबत का इक इक से अहवाल कहना
मुसीबत से है ये मुसीबत ज़ियादा
(अहवालः हालचाल)
.

फ़रिश्ते से बेहतर है इंसान बनना
मगर इसमें पड़ती है मेहनत जियादा

इश्क़ सुनते थे जिसे हम वो यही है शायद
ख़ुद-ब-ख़ुद, दिल में है इक शख़्स समाया जाता


है जुस्तजू कि ख़ूब से है ख़ूबतर कहां
अब ठहरती है देखिए जाकर नजर कहां
(जुस्तजूः तलाश, खूबतरः बेहतर से बेहतर)


हम जिस पे मर रहे हैं वो है बात ही कुछ और
आलम में तुझ से लाख सही, तू मगर कहां


होती नहीं क़ुबूल दुआ तर्के इश्क़ की
दिल चाहता न हो तो दुआ में असर कहां
(तर्के इश्कः प्रेम न करना)


उसके जाते ही ये क्या हो गई घर की सूरत
न वो दीवार की सूरत है, न दर की सूरत


क्यों बढ़ाते हो इख़तिलात बहुत
हमको ताक़त नहीं जुदाई की
(इख़तिलातः मेलजोल)


ज़िंदा फिरने की हवस है 'हाली'
इन्तहा है ये बेहयाई की
(इन्तहाः अति करना)

मीर तकी मीर

मेरे मालिक ने, मेरे हक में, यह अहसान किया
खाक-ए-नाचीज* था मैं, सो मुझे इंसान किया

नाहक हम मजबूरों पर, यह तोहमत है मुख्तारी* की
चाहते हैं सो आप करें हैं, हमको अबस* बदनाम किया

'मीर' बंदों से काम कब निकला
मांगना है जो कुछ खुदा से मांग

देख तो दिल कि जां से उठता है
ये धुआं कहां से उठता है
यूं उठे आह उस गली से हम
जैसे कोई जहां से उठता है

तुमने जो अपने दिल से भुलाया हमें तो क्या
अपने तईं तो दिल से हमारे भुलाइए

काबे जाने से नहीं कुछ शेख मुझको इतना शौक
चाल वो बतला कि मैं दिल में किसी के घर करूं

इक लिगाह कर के उसने मोल लिया
बिक गए आह, हम भी क्या सस्ते

इब्तिदा*-ए-इश्क है, रोता है क्या
आगे-आगे देखिए, होता है क्या

पत्ता-पत्ता, बूटा-बूटा, हाल हमारा जाने है
जाने न जाने गुल ही न जाने बाग तो सारा जाने है

मय* में वह बात कहां जो तेरे दीदार में है,
जो गिरा फिर न उसे कभी संभलते देखा

उलटी हो गईं सब तदबीरें कुछ न दवा ने काम किया
देखा इस बीमारि-ए-दिल ने आख़िर काम तमाम किया

अह्दे-जवानी रोरो काटा, पीरी में लीं आँखें मूँद 
यानी रात बहुत थे जागे, सुबह हुई आराम किया

नाहक़ हम मजबूरों पर ये, तोहमत है मुख़्तारी की
चाहते हैं सो आपकरे हैं, हमको अबस बदनाम किया

सारे रिन्द ओबाश जहाँ के, तुझसे सुजूद में रहते हैं
बांके, तेढ़े, तिरछे, तीखे सब का तुझको इमाम किया

सरज़द हमसे बेअदबी तो, वहशत में भी कम ही हुई
कोसों उसकी ओर गए पर, सजदा हर-हर गाम किया

किसका काबा, कैसा क़ैबला, कौन हरम है क्या ऎहराम 
कूंचे के उसके बाशिन्दों ने, सबको यहीं से सलाम किया

याँ के सुपैदो-सियाह में हमको, दख़्ल जो है सो इतना है 
रात को रो-रो सुबह किया या दिन को जूं-तूं शाम किया

सुबह चमन में उसको कहीं, तकलीफ़े-हवा ले आई थी 
रुख़ से गुल को मोल लिया, क़ामत से सर्व ग़ुलाम किया

साइदे-सीमी दोनो उसके, हाथ में लाकर छोड़ दिये
भूले उसके क़ौलो-क़सम पर, हाय ख़्याले-ख़ाम किया 

काम हुए हैं सारे ज़ाया, हर साअत की समाजत से 
इस्तिग़्ना की चौगुनी उसने, ज्यूं-ज्यूं मैं इबराम किया

'मीर' के दीनो-मज़हब को अब पूछते क्या हो उसने तो 
क़स्क़ा खेंचा दैर में बैठा, कब का तर्क इसलाम 

कठिन शब्दों के अर्थ 
तदबीरें -----उपाय, तरकीबें, जतन 
अहदे-जवानी----जवानी के दिन 
पीरी-----बुढ़ापा, तोहमत----इल्ज़ाम 
मुख़्तारी---- स्वाधीनता
सुजूद -----सजदे, इमाम-----लीडर 
बेअदबी------असभ्यता, वहशत----पागलपन 
गाम---- क़दम, सुपेदो-सियाह-----सफ़ेद और काले
रुख़ ---मुख, चेहरा, क़ामत----क़द, शरीर की लम्बाई
सर्व-----अशोक के पौदे के समान एक पौदा 
साइदे-सीमीं----चांदी जैसे बाज़ू, ख़्याले-ख़ाम--भ्रम 
क़ौलो-क़सम----वचन, वादे, ज़ाया----नष्ट, बरबाद 
साअत----- पल, लम्हा, समाजत---- ख़ुशामद 
इस्तिग़ना----लापरवाही,बेनियाज़ी, इबराम---रंजीदा, आग्रह 
आहू-ए-रमख़ुर्दा-----भागा हुआ हरिण, एजाज़---चमत्कार 
क़श्क़ा-----तिलक, दैर----मन्दिर, तर्क---सम्बंध विच्छेद 

2. मौसम है निकले शाख़ों से पत्ते हरे हरे
पौदे चमन में फूलों से देखे भरे भरे

आगे कसू के क्या करें दस्त-ए-तमआ दराज़* -------लालच से भरा हाथ 
वो हाथ सो गया है सरहाने धरे धरे

गुलशन में आग लग रही थी रंगे-गुल से मीर
बुलबुल पुकारी देख के साहब परे परे 

3 . कोफ़्त*से जान लब पे आई है------दुख, कष्ट 
हमने क्या चोट दिल पे खाई है 

दीदनी* है शिकस्तगी दिल की------देखने योग्य 
क्या इमारत ग़मों ने ढ़ाई है 

बेसुतूँ* क्या है कोहकन** कैसा------एक पहाड़, फ़रहाद 
इश्क़ की ज़ोर आज़माई है 

मर्गे-मजनूँ* से अक़्ल गुम है मीर---------मजनूँ की मौत 
क्या दिवाने ने मौत पाई है 

4. बेकली बेख़ुदी* कुछ आज नहीं-----बेचैनी और बेहोशी 
एक मुद्दत से वो मिज़ाज नहीं 

हमने अपनी सी की बहुत लेकिन 
मरज़-ए-इश्क़* का इलाज नहीं-------प्रेम रोग 

शहर-ए-ख़ूबाँ*को ख़ूब देखा मीर--------हुस्न वालों का नगर 
जिंस-ए-दिल* का कहीं इलाज नहीं-------दिल जैसी