Sunday, 21 July 2013

बहादुरशाह जफर



बहादुरशाह जफर

अंतिम मुगल शासक और जाने-माने शायर बहादुरशाह जफर का जन्म 1775 में हुआ था। जफर उनका तखल्लुस था, जिसका मतलब होता है विजय। इसी नाम से उन्होंने तमाम .गालें लिखीं। 1857 की क्रांति उन्हीं के शासन में हुई थी। माना जाता है कि इसी क्रांति के दौरान उनकी काफी रचनाएं नष्ट हो गई थीं। 1862 में 87 साल की उम्र में उनका इंतकाल हो गया। 


हिंदियों में बू रहेगी, जब तलक ईमान की
तख्त-ए-लंदन पर चलेगी, तेग हिन्दुस्तान की।

तेग : तलवार

जलाया यार ने ऐसा, कि हम वतन से चले
बतौर शमा के रोते, इस अंजुमन से चले।

न किसी की आंख का नूर हूं, न किसी के दिल का .करार हूं
जो किसी के काम न आ सके, मैं वो एक मुश्त-ए-.गुबार हूं।

कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें
इतनी जगह कहां है दिल-ए-दा.गदार में।

न मालो हु.कूमत न धन जाएगा
तेरे साथ बस एक कफन जाएगा।

उम्र-ए-दराज मांग कर लाए थे चार दिन
दो आरजू में कट गए, दो इंतजार में।

हमने दुनिया में आकर क्या देखा
देखा जो कुछ सो ख्वाब सा देखा।

कीजिए न दस में बैठकर आपस की बातचीत
पहुंचती दस हजार जगह दस की बातचीत।

हर बात में उसकी गर्मी है, हर नाज में उसके शोखी है।
आमद है .कयामत चाल भरी, चलने की फड़क फिर वैसी है।

सुबह रो-रो के शाम होती है
शब तड़प के तमाम होती है।

कितना है बदनसीब 'जफर' दफ्न के लिए
दो गज जमीन भी न मिली कू-ए-यार में।

खुलता नहीं है हाल, किसी पर कहे ब.गैर
पर दिल की जान लेते हैं, दिलबर कहे ब.गैर।

क्या ताब क्या मशाल हमारी कि बोसा लें
लब को तुम्हारे लब से मिलाकर कहे बगैर।
ताब : ताकत

बात करनी मुझे मुश्किल, कभी ऐसी तो न थी
जैसी अब है तेरी महफिल, कभी ऐसी तो न थी।

मुलक की मिट्टी की चादर कहां?
जफर तू तो अब बे वतन जाएगा।

देखते हैं ख्वाब में जिस दिन किसू की चश्म-ए-मस्त
रहते हैं हम दो जहां से बेखबर दो दिन तलक
किसू : कोई
चश्म ए मस्त : मदमस्त आंखें

नरेशकुमारशाद

नरेशकुमारशाद ने एकदम आम भाषा में जो ग़जल लिखीं,वे बहुत लोकप्रिय हुईं। लेकिन क़ता और रुवाइयां उनकी खासियतें थीं। शाद एक पत्रकार भी थे और 'चंदन'के सह संपादक रहे। मुजफ्फरनगर के नजदीक याहयापुर में 27 नवंबर (मंगलवार को जन्मदिन) 1927 कोपैदा हुए शाद की बहुत ज्यादा शराब पीने के कारण 1969 में केवल 42 साल की उम्र में मौत हो गई।

मैंनेहरगमखुशीमेंढालाहै,
मेराहरचलननिरालाहै
लोगजिनहादसोंसेमरतेहैं,
मुझकोउनहादसोंनेपालाहै।

हर कली मस्ते खब हो जाती,
पत्ती-पत्ती गुलाब हो जाती
तूने डाली  मैं-फशां नज़रें
वरना शबनम शराब हो जाती
(मैं-फशांनशीलीशबनमः ओस की बूंद)

जिंदगीअपनेआईनेमेंतुझे
अपनाचेहरानारनहींआता
जुल्मकरनातोतेरीआदतहै
जुल्मसहनामगरनहींभाता

तूने तो जिस्म ही को बेचा है
एक फाके को टालने के लिए
लोग यज़दां  बेच देते हैं
अपना मतलब निकालने के लिए
(यजदांखुदा)

दीवारक्यागिरीमेरेकच्चेमकानकी,
लोगोंनेमेरेसहनसेरस्तेबनालिए।
(सहनआँगन)

करम ऐसे किये हैं दोस्तों ने कि
हर दुश्मन पै यार आने लगा है।

हरहसींकाफिरांकेमाथेपर
अपनीरहमतकाताजरखताहै
तूभीपरवरदिगारमेरीतरह
आशिकानामिज़ाजरखताहै
(हसींकाफिरांबहुतसुन्दरपरवरदिगारईश्वर)

मजरूह सुल्तानपुरी

मजरूह सुल्तानपुरी
जन्म: 1 अक्टूबर 1919
इंतकाल: 24 मई 2000
मशहूर शायर मजरूह सुल्तानपुरी की शायरी और फिल्मी नग्मों में जमीन से गहराई तक जुड़े उनके सरोकारों की छाप मिलती है। इसके अलावा, उन्होंने इश्क के तरानों को भी अपनी लेखनी से नए आयाम दिए हैं।


मैं अकेला ही चला था जानिबे-मंजिल मगर

लोग आते गए और कारवां बनता गया


बचा लिया मुझे तूफां की मौज ने वर्ना

किनारे बाले सफीना मेरा डुबो देते (सफीना - नाव)


रहते थे कभी जिनके दिल में, हम जान से भी प्यारों की तरह

बैठे हैं उन्हीं के कूंचे में हम, आज गुनहगारों की तरह


दुनिया करे सवाल तो हम क्या जवाब दें,

तुमको ना हो ख्याल तो हम क्या जवाब दें ...


जफा के नाम पर तुम क्यों संभलकर बैठ गए,

तुम्हारी बात नहीं, बात है जमाने की। (जफा : जुल्म)

पहले सौ बार इधर और उधर देखा है

तब कहीं डर के तुम्हें एक नार देखा है


क्या ग़लत है जो मैं दीवाना हुआ, सच कहना

मेरे महबूब को तुम ने भी अगर देखा है


ये आग और नहीं दिल की आग है नादां

चिराग हो के न हो, जल बुझेंगे परवाने


शमा भी, उजाला भी मैं ही अपनी महफिल का

मैं ही अपनी मंजिल का राहबर भी, राही भी


मिली जब उनसे नार, बस रहा था एक जहां

हटी निगाह तो चारों तरफ थे वीराने


तकदीर का शिकवा बेमानी, जीना ही तुझे मंजूर नहीं

आप अपना मुकद्दर बन न सके इतना तो कोई मजबूर नहीं

दाग देहलवी

दाग देहलवी

जन्म : 1831
मृत्यु : 1865
उर्दू शायरी में एक अहम नाम। सहज और पारदर्शी भाषा के साथ नाटकीय अंदाज में बारीक खयालों के इजहार के लिए मशहूर हुए।

दिल लेके मुफ्त कहते हैं, कुछ काम का नहीं
उल्टी शिकायतें हुईं, अहसान तो गया

मिलाते हो उसी को खाक में, जो दिल से मिलता है
मेरी जां चाहने वाला, बड़ी मुश्किल से मिलता है

बारहा उसने सफाई हमसे की
कुछ खलिश* हर बार बाकी रह गई

एक तो हुस्न बला, उस पे बनावट आफत
घर बिगाड़ेंगे हजारों के, संवरने वाले

ऐ .फलक चाहिए जी भर के नजारा हमको
जाके आना नहीं दुनिया में दोबारा हमको

आंखों से लड़े गेसु-ए-खमदार* से उलझे
ये हारते दिल रोज ही दो चार से उलझे

.फलक* देता है जिनको ऐश उनको गम भी होते हैं
जहां बजते हैं नक्कारे, वहां मातम भी होते हैं

खुदा जब दोस्त है ऐ दाग, क्या दुश्मन से अंदेशा
हमारा कुछ किसी की दुश्मनी से हो नहीं सकता

जो हो आगाज* में बेहतर, वो खुशी है बदतर
जिसका अंजाम हो अच्छा, वो मुसीबत अच्छी

दुनिया में कोई लुत्फ करे या जफा*
जब मैं न हूं बला से मेरी कुछ हुआ करे
मुश्किल शब्दों के अर्थ :
.खलिश* = तकलीफ, गेसु-ए-.खमदार* = बलखाई जुल्फें, फलक* = आसमान, आगाज* = शुरुआत, जफा* = बेवफाई।

निदा फाज़ली

निदा फाज़ली

जन्म: 
12 अक्टूबर, 1938

उर्दू के जाने-माने शायर। आधुनिक उर्दू कविता को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाने में अहम किरदार। फिल्मों के लिए कई चर्चित गीत भी लिखे हैं। 1998 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित हुए। चंद शेर:

घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूं कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए

दिल में न हो जुअर्त* तो मुहब्बत नहीं मिलती
खैरात में इतनी बड़ी दौलत नहीं मिलती

उसके दुश्मन हैं बहुत, आदमी अच्छा होगा
वो भी मेरी ही तरह शहर में तन्हा होगा

मुंह की बात सुने हर कोई, दिल के दर्द को जाने कौन
आवाजों के बाजारों में, .खामोशी पहचाने कौन

हर आदमी में होते हैं, दस-बीस आदमी
जिसको भी देखना हो, कई बार देखना

जब किसी से कोई गिला* रखना
सामने अपने आईना रखना

दुश्मनी लाख सही, खत्म न कीजे रिश्ता
दिल मिले न मिले, हाथ मिलाते रहिए

हर तरफ हर जगह बेशुमार आदमी
फिर भी तन्हाइयों का शिकार आदमी

कुछ तबीयत ही मिली थी ऐसी, चैन से जीने की सूरत नहीं हुई
जिसको चाहा उसे अपना न सके, जो मिला उससे मुहब्बत न हुई

किसी को टूट के चाहा, किसी से खिंच के रहे
दुखों की राहतें झेलीं, खुशी के दर्द सहे

मुमकिन है सफर हो आसां, अब साथ भी चल कर देखें
कुछ तुम भी बदल कर देखो, कुछ हम भी बदल कर देखें

तू इस तरह से मेरी जिदिगी में शामिल है
जहां भी जाऊं, ये लगता है, तेरी मह.फल है

कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता
कहीं जमीन, कहीं आस्मां नहीं मिलता

मुश्किल शब्दों के अर्थ : जुअर्त* = साहस, गिला* = शिकायत। 

जिगर मुरादाबादी

उर्दू ग़ाल का एक नायाब नाम। मीर और .गालिब के बाद जिस एक शायर ने बहुत कम लफ्जोंमें गहरी बात पैदा करने की काबिलियत पाई, उनमें फिराक गोरखपुरी के साथ जिगर मुरादाबादी का नाम भी शुमार किया जाता है। उन्हें उनके गजल-संग्रह, 'आतिश-ए-गुल' के लिए साल 1985 का साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला।
जन्म: 6 अप्रैल, 1890
मृत्यु: 9 सितंबर, 1960

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इक लफ्जे-मोहब्बत का अदना ये फसाना है
सिमटे तो दिल-ए-आशिक फैले तो जमाना है

वो थे न मुझसे दूर न मैं उनसे दूर था
आता न था नार को नार का .कुसूर था

निगाहों से छुप कर कहां जाइएगा
जहां जाइएगा, हमें पाइएगा

दिल में किसी के राह किए जा रहा हूं मैं
कितना हसीं गुनाह किए जा रहा हूं मैं

आंखों में बस के दिल में समा कर चले गए
ख्वाबिदा जिन्दगी थी जगा कर चले गए

(ख्वाबिदा= ख्वाब की तरह)

लाखों में इंतख़ाब के .काबिल बना दिया
जिस दिल को तुमने देख लिया दिल बना दिया

(इंतख़ाब = चयन)

चाहता है इश्क, राजे इश्क उरियां कीजिए
यानी .खुद खो जाइए उनको नुमायां कीजिए

(उरियां = प्रकट, नुमायां = उजागर)

मुमकिन नहीं कि जबा-ए-दिल कारगर न हो
ये और बात है तुम्हें अब तक .खबर न हो

(जबा-ए-दिल = मनोभावना)

आदमी आदमी से मिलता है
दिल मगर कम किसी से मिलता है

फुर्सत कहां कि छेड़ करें आसमां से हम
लिपटे पड़े हैं लज़ते-ददेर्-निहां से हम

(लज़ते-दर्दे-निहां = मन की तकलीफ के आनंद में)

न जां दिल बनेगी न दिल जान होगा
ग़मे-इश्क़ ख़ुद अपना उन्वां होगा

(उन्वां = शीर्षक)

मुहब्बत में हम तो जिए हैं जिएंगे
वो होंगे कोई और मर जाने वाले

मोहब्बत में क्या-क्या मुक़ाम आ रहे हैं
कि मंजिल पे हैं और चले जा रहे हैं 

'मजाज़' लखनवी

'मजाज़' लखनवी का मूल नाम असरारुल हक़ था। उनका जन्म यूपी के रुदौली कस्बे में 1911 में हुआ था। 5 दिसंबर (बुधवार) को उनकी पुण्यतिथि है। कुल 44 बरस जीनेवाले मजाज़ ने उर्दू शायरी में जो मकाम हासिल किया, वह बहुतों के हिस्से नहीं आया। मजाज़ की मकबूलियत का आलम यह था कि उनकी नज़्में दूसरी भाषाओं में भी खूब सराही गई। खुद उर्दू में उन्होंने भाषा के नए पैमाने गढ़े। 
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हाय वह वक्त कि बेपिये बेहोशी थी,
हाय यह वक्त कि पीकर भी मख्मूर नहीं।
(मख्मूर- नशे में चूर)


इश्क का ज़ौके-नज़ारा मुफ्त को बदनाम है,
हुस्न खुद बेताब है जलवा दिखाने के लिए।

(ज़ौके-नज़ाराः देखने का शौक़)

बहुत मुश्किल है दुनियां का संवरना
तिरी जुल्फों का पेचो-ख़म नहीं है।


आंख से आंख जब नहीं मिलती
दिल से दिल हमकलाम होता है
(हमकलामः आपसी बातचीत करनेवाले)

ख़ुद दिल में रखके आंख से पर्दा करे कोई
हां लुफ्त जब है पा के भी ढूंढा करे कोई।


लाख छिपाते हो मगर छिपके भी मस्तूर नहीं
तुम अजब चीज़ हो, नजदीक नहीं दूर नहीं
(मस्तूर-प्रकट)

हुस्न को नाहक पशेमां कर दिया
दे जुनूं ये भी कोई अंदाज है।
(पशेमां=शर्मिंदा)


कुछ तुम्हारी निगाह काफ़िर थी
कुछ मुझे भी ख़राब होना था

तुझी से तुझे छीनना चाहता हूं
ये क्या चाहता हूं, ये क्या चाहता हूं।


तेरे गुनहगार, गुनहगार ही सही
तेरे करम की आस लगाए हुए तो हैं।

ये रंग-बहार-आलम है
क्यों फ़िक्र है तुझको ऐ साकी!
मह़फिल तो तेरी सूना न हुई कुछ उठ भी गए, कुछ आ भी गए।


उनका करम है उनकी मुहब्बत 
क्या मेरे नग़्मे, क्या मेरी हस्ती।

ये तो क्या कहिए चला था मैं कहां से हमदम
मुझको ये भी न था मालूम, किधर जाना था


चारागरी सर-आंखों पर, इस चारागरी से क्या होगा
दर्द की अपनी आप दवा है, तुमसे क्या अच्छा होगा
(चारागरी=इलाज)

कुछ तुम्हारी निगाह काफ़िर थी
कुछ मुझे भी ख़राब होना था