Sunday, 21 July 2013

बशीर बद्र

जिंदगी तू मुझे पहचान न पाई लेकिन
लोग कहते हैं कि मैं तेरा नुमाइंदा हूं।

बस गई है मेरे अहसास में ये कैसी महक
कोई ख़ुशबू मैं लगाऊं, तेरी ख़ुशबू आए।

तुम्हें ज़रूर कोई चाहतों से देखेगा
मगर वो आंखें हमारी कहां से लाएगा।

उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो
न जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए।

जिस दिन से चला हूं मिरी मंज़िल पे नज़र है
आंखों ने कभी मील का पत्थर नहीं देखा।

हम भी दरिया हैं, हमें अपना हुनर मालूम है,
जिस तरफ़ भी चल पड़ेंगे, रास्ता हो जाएगा।

मकां से क्या मुझे लेना मकां तुमको मुबारक हो
मगर ये घास वाला रेशमी कालीन मेरा है।

लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में
तुम तरस नहीं खाते बस्तियां जलाने में।

हर धड़कते पत्थर को, लोग दिल समझते हैं
उम्र बीत जाती है, दिल को दिल बनाने में।

परखना मत, परखने में कोई अपना नहीं रहता
किसी भी आईने में देर तक चेहरा नहीं रहता।

कोई हाथ भी न मिलाएगा,जो गले मिलोगे तपाक से
ये नये मिज़ाज का शहर है,ज़रा फ़ासले से मिला करो।

सियासत की अपनी अलग इक ज़बां है
लिखा हो जो इक़रार, इनकार पढ़ना।

किसी की राह में दहलीज़ पर दिया न रखो
किवाड़ सूखी हुई लकड़ियों के होते हैं

मुझसे बिछड़ के ख़ुश रहते हो
मेरी तरह तुम भी झूठे हो
इक टहनी पर चांद टिका था
मैं ये समझा तुम बैठे हो

वो शाख है न फूल, अगर तितलियां न हों
वो घर भी कोई घर है जहां बच्चियां न हों

सर झुकाओगे तो पत्थर देवता हो जायेगा,
इतना मत चाहो उसे वो बे-वफ़ा हो जायेगा।


हम भी दरिया हैं हमें अपना हुनर मालूम है,
जिस तरफ भी चल पड़ेंगे रास्ता हो जायेगा।

दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुंजाइश रहे
जब कभी हम दोस्त हो जायें तो शर्मिंदा न हों।


एक दिन तुझ से मिलने जरूर आऊंगा
जिंदगी मुझ को तेरा पता चाहिए।

लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में,
तुम तरस नहीं खाते बस्तियां जलाने में।


पलकें भी चमक जाती हैं सोते में हमारी,
आंखों को अभी ख्वाब छुपाने नहीं आते।

तमाम रिश्तों को मैं घर पे छोड़ आया था,
फिर उस के बाद मुझे कोई अजनबी नहीं मिला।


जिस पर हमारी आंख ने मोती बिछाये रात भर
भेजा वही क़ाग़ज उसे हमने लिखा कुछ भी नहीं।

कुछ तो मजबूरियां रही होंगी,
यूं कोई बेवफ़ा नहीं होता।


जैसे सर्दियों में गर्म कपड़े दे फ़क़ीरों को,
लबों पे मुस्कुराहट थी मगर कैसी हिकारत सी।

अजीब शख्स है नारा होके हंसता है,
मैं चाहता हूं ख़फ़ा हो, तो ख़फ़ा ही लगे।


देने वाले ने दिया सब कुछ अजब अंदाज से,
सामने दुनिया पड़ी है और उठा सकते नहीं।

मिल भी जाते हैं तो कतरा के निकल जाते हैं,
हाय मौसम की तरह दोस्त बदल जाते हैं।

हम अभी तक हैं गिरफ़्तार-ए-मुहब्बत यारों,
ठोकरें खा के सुना था कि सम्भल जाते हैं।

मुझसे बिछड़ के ख़ुश रहते हो,
मेरी तरह तुम भी झूठे हो।


कभी हम भी इस के क़रीब थे, दिलो जान से बढ़ कर अज़ीज थे,
मगर आज ऐसे मिला है वो, कभी पहले जैसे मिला ना हो।

कभी धूप दे, कभी बदलियां, दिलोजान से दोनों कुबूल हैं,
मगर उस नगर में ना कैद कर, जहां जिन्दगी की हवा ना हो।

No comments:

Post a Comment