Sunday, 21 July 2013

जिगर मुरादाबादी

उर्दू ग़ाल का एक नायाब नाम। मीर और .गालिब के बाद जिस एक शायर ने बहुत कम लफ्जोंमें गहरी बात पैदा करने की काबिलियत पाई, उनमें फिराक गोरखपुरी के साथ जिगर मुरादाबादी का नाम भी शुमार किया जाता है। उन्हें उनके गजल-संग्रह, 'आतिश-ए-गुल' के लिए साल 1985 का साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला।
जन्म: 6 अप्रैल, 1890
मृत्यु: 9 सितंबर, 1960

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इक लफ्जे-मोहब्बत का अदना ये फसाना है
सिमटे तो दिल-ए-आशिक फैले तो जमाना है

वो थे न मुझसे दूर न मैं उनसे दूर था
आता न था नार को नार का .कुसूर था

निगाहों से छुप कर कहां जाइएगा
जहां जाइएगा, हमें पाइएगा

दिल में किसी के राह किए जा रहा हूं मैं
कितना हसीं गुनाह किए जा रहा हूं मैं

आंखों में बस के दिल में समा कर चले गए
ख्वाबिदा जिन्दगी थी जगा कर चले गए

(ख्वाबिदा= ख्वाब की तरह)

लाखों में इंतख़ाब के .काबिल बना दिया
जिस दिल को तुमने देख लिया दिल बना दिया

(इंतख़ाब = चयन)

चाहता है इश्क, राजे इश्क उरियां कीजिए
यानी .खुद खो जाइए उनको नुमायां कीजिए

(उरियां = प्रकट, नुमायां = उजागर)

मुमकिन नहीं कि जबा-ए-दिल कारगर न हो
ये और बात है तुम्हें अब तक .खबर न हो

(जबा-ए-दिल = मनोभावना)

आदमी आदमी से मिलता है
दिल मगर कम किसी से मिलता है

फुर्सत कहां कि छेड़ करें आसमां से हम
लिपटे पड़े हैं लज़ते-ददेर्-निहां से हम

(लज़ते-दर्दे-निहां = मन की तकलीफ के आनंद में)

न जां दिल बनेगी न दिल जान होगा
ग़मे-इश्क़ ख़ुद अपना उन्वां होगा

(उन्वां = शीर्षक)

मुहब्बत में हम तो जिए हैं जिएंगे
वो होंगे कोई और मर जाने वाले

मोहब्बत में क्या-क्या मुक़ाम आ रहे हैं
कि मंजिल पे हैं और चले जा रहे हैं 

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