Sunday, 21 July 2013

नजीर अकबराबादी



हर आन में, हर बात में, हर रंग ढंग में पहचान
आशिक है तो दिलबर को हर एक रंग में पहचान


है चाह .फकत एक दिलबर की,
फिर और किसी की चाह नहीं
एक राह उसी से रखते हैं,
फिर और किसी से राह नहीं

उस जुल्फ के फंदे में यों कौन अटकता है
ज्यों चोर किसी रस्से से लटकता है
कांटे की तरह दिल में .गम आके खटकता है
यह कहके 'नासिर' सर .गम से पटकता है
दिल बंद हुआ यारो! देखो तो कहां जाकर


नजीर! एक दो गिले करने बहुत होते हैं .खूबां से
चलो अब चुप रहो बस, खोल बैठे तुम तो दफ्तर सा

(.खूबां : प्रियतम से)

रोटी न पेट में हो, तो फिर कुछ जतन न हो
मेल की सैर ख्वाहिश-ए-बाग-ए-चमन न हो
भूके .गरीब दिल की खु़दा से लगन न हो
सच है कहा किसी ने कि भूके भजन न हो
अल्लाह की भी याद दिलाती हैं रोटियां


अपने नफे के वास्ते, मत और का नु.कसान कर
तेरा भी नु.कसान होवेगा, इस बात ऊपर ध्यान कर

यह धूम धड़क्का साथ लिए, क्यों फिरता है जंगल-जंगल
एक तिनका साथ न जावेगा, मौ.कू.फ हुआ जब अन्न और जल
घर-बार, अटारी, चौबारे, क्या .खासा, तनसुख और म.खमल
क्या चिलमन-पर्दे, फर्श नए, क्या लाल पलंग और रंग महल
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा, जब लाद चलेगा बनजारा

(मौकूफ = बंद होना, .खासा = कपड़े की एक किस्म)


है दुनिया जिसका नाम मियां, ये और तरह की बस्ती है
जो महंगों को तो महंगी है, और सस्तों को ये सस्ती है
यां हरदम झगड़े उठते हैं, हर आन अदालत कस्ती है
गर मस्त करे तो मस्ती है, और पस्त करे तो पस्ती है

दुनिया में अपना जी कोई बहला के मर गया
दिल तंगियों से और कोई उकता के मर गया
आकिल था वो, तो आप को समझा के मर गया
बेअक्ल छाती कूट के, घबरा के मर गया
दुख पा के मर गया, कोई सुख पा के मर गया
जीता रहा न कोई, हर एक आ के मर गया

(आकिल = समझदार)

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