Sunday, 21 July 2013

जफर गोरखपुरी

इरादा हो अटल तो मोजजा ऐसा भी होता है
दिए को जिंदा रखती है हवा, ऐसा भी होता है। (मोजजा : चमत्कार)
क्या उम्मीद करें उनसे जिन को वफा मालूम नहीं
गम देना मालूम है लेकिन गम की दवा मालूम नहीं।

जब मेरी याद सताए तो मुझे खत लिखना
तुम को जब नींद न आए तो मुझे खत लिखना।
दिन को भी इतना अंधेरा है मेरे कमरे में
साया आते हुए डरता है मेरे कमरे में।
धूप क्या है और साया क्या है अब मालूम हुआ
ये सब खेल तमाशा क्या है अब मालूम हुआ।
मजबूरी के मौसम में भी जीना पड़ता है
थोड़ा-सा समझौता जानम करना पड़ता है।
मिले किसी से नार तो समझो गजल हुई
रहे अपनी खबर तो समझो गजल हुई।
मेरे बाद किधर जाएगी तन्हाई
मैं जो मरा तो मर जाएगी तन्हाई।
मौसम को इशारों से बुला क्यूं नहीं लेते
रूठा है अगर वो तो मना क्यूं नहीं लेते।
मैं ऐसा खूबसूरत रंग हूं दीवार का अपनी
अगर निकला तो घरवालों की नादानी से निकलूंगा।
मेरी इक छोटी सी कोशिश तुझको पाने के लिए
बन गई है मसला सारे जमाने के लिए।
मयकदा सबका है सब हैं प्यासे यहां
मय बराबर बटे चारसू दोस्तो।
देखें करीब से भी तो अच्छा दिखाई दे
इक आदमी तो शहर में ऐसा दिखाई दे।
जिस्म छूती है जब आ आ के पवन बारिश में
और बढ़ जाती है कुछ दिल की जलन बारिश में।
समा जाती हैं बालों में मसीहा उंगलियां तेरी
मुझे महसूस होता है
मेरे बिखरे हुए आजा दुबारा जुड़ गए हैं....
(आजा : बदन के हिस्से)
बदन की कैद बहुत साज़गार भी तो नहीं
मगर यहां कोई राह-ए-फरार भी तो नहीं
(साज़गार : सुरीला, राह-ए-फरार : बच निकलने का रास्ता)

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