Sunday, 21 July 2013

अकबर इलाहाबादी



दुनिया में हूं दुनिया का तलबगार नहीं हूं
बाज़ार से गुज़रा हूं, ख़रीददार नहीं हूं

इतनी आज़ादी भी ग़नीमत है
सांस लेता हूं, बात करता हूं

हर ज़र्रा चमकता है
अनवर-ए-इलाही से
हर सांस ये कहती है
हम हैं, तो ख़ुदा भी है

अनवर-ए-इलाही= दैवी प्रकाश) 

फ़लसफ़ी को बहस के अंदर ख़ुदा नहीं मिलता
डोर को सुलझा रहा है, और सिरा नहीं मिलता

फ़लसफ़ी= दार्शनिक) 

मज़हबी बहस मैंने की ही नहीं
फ़ालतू अक़्ल मुझमें थी ही नहीं

ग़म क्या जो आसमान है मुझसे फिरा हुआ
मेरी नज़र से ख़ुद है ज़माना घिरा हुआ

हम आह भी भरते हैं, तो हो जाते हैं बदनाम
वो क़त्ल भी करते हैं, तो चर्चा नहीं होता

दिल वो है कि फ़रियाद से लबरेज है हर वक़्त
हम वो हैं कि कुछ मुंह से निकलने नहीं देते

लबरेज= भरा हुआ) 

इश्क़ नाज़ुकमिज़ाज है बेहद
अक़्ल का बोझ उठा नहीं सकता

चार दिन की ज़िदगी है, कोफ़्त से क्या फ़ायदा
खा 'डबल रोटी' 'क्लर्की' कर, खुशी से फूल जा

इस तरह ज़िदिगी ने दिया है हमारा साथ
जैसे निबाह रहा हो रक़ीब से

रक़ीब= दुश्मन) 

मौत आई इश्क़ में तो हमें नींद आ गई
निकली बदन से जान तो कांटा निकल गया

कहां ले जाऊं दिल दोनों जहां में इसकी मुश्किल है
यहां परियों का मजमा है, वहां हूरों की महफ़िल है

कौन हमदर्द किसी का है जहां में 'अकबर'
इक उभरता है यहां एक के मिट जाने से

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