Sunday, 21 July 2013

जावेद अख्तर

खुदकुशी क्या ग़मों का हल बनती
मौत के अपने भी सौ झमेले थे क्यों डरें ज़िंदगी में क्या होगा
कुछ ना होगा तो ताज़रबा होगा
अब अगर आओ तो जाने के लिए मत आना
सिर्फ एहसान जताने के लिए मत आना

दर्द अपनाता है पराए कौन
कौन सुनता है और सुनाए कौन

मिसाल इसकी कहां है ज़माने में
कि सारे खोने के .गम पाये हमने पाने में

हर खुशी में कोई कमी-सी है
हंसती आंखों में भी नमी-सी है

आप भी आए, हम को भी बुलाते रहिए
दोस्ती ज़ुर्म नहीं, दोस्त बनाते रहिए

ये तसल्ली है कि हैं नाशाद सब
मैं अकेला ही नहीं बर्बाद सब

सब की ख़ातिर है यहां सब अजनबी
और कहने को हैं घर आबाद सब
(नाशाद : .... )

दर्द के फूल भी खिलते हैं बिखर जाते हैं
ज़ख्म कैसे भी हों, कुछ रोज़ में भर जाते हैं

इबादत करते हैं जो लोग जन्नत की तमन्ना में
इबादत तो नहीं है इक तरह की वो तिजारत है

दुख के जंगल में फिरते हैं सब से मारे-मारे लोग
जो होता है सह लेते हैं कैसे हैं बेचारे लोग

सच ये है बेकार हमें ग़म होता है
जो चाहा था दुनिया में कम होता है

यही हाल इब्तदा से रहे
लोग हमेशा खफ़ा-खफ़ा से रहे

जाते-जाते वो मुझे अच्छी निशानी दे गया
उम्र भर दोहराऊं ना ऐसी कहानी दे गया

दिलों में तुम अपनी बेताबियां लेके चल रहे हो, तो ज़िंदा हो तुम
नज़र में .ख्वाबों की बिजलियां लेके चल रहे हो, तो ज़िदा हो तुम

इन चिराग़ों में तेल ही कम था
क्यों गिला फिर हमें हवा से रहे

हम जिसे गुनगुना नहीं सकते
वक्त ने ऐसा गीत क्यूं गाया

.गैरों को कब फुरसत है दु:ख देने की
जब होता है कोई हम-दम होता है

कौन सा ज़ख्म़ किसने बखश़ा है
उसका रखे कहां हिसाब कोई

ज़िदगी भर मेरे काम आए असूल
एक-एक करके मैं उन्हें बेचा किया

कुछ कमी अपनी वफ़ाओं में भी थी
तुम से क्या कहते कि तुमने क्या किया

चाहने वालों की तक़बीरें बदल सकती हैं
तुम हो बेबस ये बताने के लिए मत आना

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