Sunday, 21 July 2013

खुसरो

नर तन पाय जतन कर ऐसा,
जिसमें वो करतार मिले।
ऐसी उत्तम योनि पदारथ,
फिर नहीं बारमबार मिले।।

जनम जनम की बिगड़ी बात,
सब इसी जनम में बन जाई।
दुख-सुख भोग पिता और माता,
और सकल संसार मिले।

वह हिंदुस्तान के पहले ऐसे मुस्लिम साहित्यकार हैं, जिन्होंने यहां के हिंदुओं और मुसलमानों को उनकी धार्मिक कट्टरता से बाहर निकालने के लिए आवाज बुलंद की। उनका एक शेर है :

काफिरे इश्कम मुसलमानी
मरां दर कार नीस्त।
हर रगे मन तार गश्ता
हाजते जुन्नार नीस्त।।

अर्थात् मैं प्रेम का काफिर हूं। मुझे मुसलमानी की कोई जरूरत नहीं। मेरी हर रग तार बन गई है, मुझे जनेऊ नहीं चाहिए। क्योंकि प्रेम रस प्रवाहित होने से मेरी धमनियां यज्ञोपवीत जैसी पवित्र बन गई हैं। वे एक ऐसे मुसलमान थे, जिन्होंने बेखौफ धार्मिक सहिष्णुता और सांस्कृतिक एकता की भावना को अपनी रचनाओं में स्थान दिया। धार्मिक कट्टरता के उस युग में सात सौ साल पहले वे खुलेआम कह रह थे :

खल्क मी गोयद की खुसरो,
बुत परस्ती मी कुनद।
आरे आरे मी कुनम व
खल्क ओ आलम कार नीस्त।

यानी दुनिया कहती है कि खुसरो हिंदुओं की तरह मूर्ति पूजा करता है। हां, हां मैं करता हूं। मुझे दुनिया से कोई सरोकार नहीं। इसका भावार्थ यह है कि अगर हिंदू मूर्ति पूजा करते हैं तो यह उनकी इबादत का तरीका है। वे मूर्ति को भगवान का प्रतीक मानते हैं, न कि स्वयं को भगवान। मुसलमान के लिए मूर्ति पूजा करना गलत है। पर मूर्ति पूजा एकाग्रता एवं साधना का एक तरीका है। उसमें भी प्रेम का पुट है। उसे हरगिज बुरा न कहो।

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