Sunday, 21 July 2013

वसीम बरेलवी

जहां रहेगा वहीं रोशनी लुटाएगा
किसी चराग़ का अपना मकां नहीं होता


मिली हवाओं में उड़ने की वो सज़ा यारो
के मैं ज़मीन के रिश्तों से कट गया यारो

तुम आ गए हो तो फिर चांदनी सी बातें हों
ज़मीं पे चांद कहां रोज़ रोज़ उतरता है



कौन-सी बात कहां, कैसे कही जाती है
ये सलीक़ा हो तो हर बात सुनी जाती है


अपने चेहरे से जो ज़ाहिर है छुपाएं कैसे
तेरी मर्ज़ी के मुताबिक नजर आएं कैसे



मुझको चलने दो अकेला है अभी मेरा सफ़र
रास्ता रोका गया तो क़ाफ़िला हो जाऊंगा


उसूलों पे जहां आंच आए, टकराना ज़रूरी है
जो ज़िंदा हो, तो फिर ज़िंदा नजर आना ज़रूरी है



कोई इशारा, दिलासा न कोई वादा मगर
जब आई शाम तेरा इंतज़ार करने लगे


मैं उसको भूल गया हूं ये कौन मानेगा
किसी चराग़ के बस में धुआं नहीं होता



तू तो नफ़रत भी न कर पाएगा इस शिद्दत के साथ
जिस बला का प्यार तुझसे बेख़बर मैंने किया


तुम्हारा प्यार तो सांसों में सांस लेता है
जो होता नशा तो इक दिन उतर नहीं जाता



हादसों की ज़द पे हैं तो क्या मुस्कराना छोड़ दें
ज़लज़लों के खौफ़ से क्या घर बनाना छोड़ दें


चाहे जितना भी बिगड़ जाए ज़माने का चलन
झूठ से हारते देखा नहीं सच्चाई को



ग़रीब लहरों पे पहरे बिठाए जाते हैं
समंदरों की तलाशी कोई नहीं लेता


उस ने क्या लाज रखी है मेरी गुमराही की
कि मैं भटकूं तो भटक कर भी उसी तक पहुंचूं

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