Sunday, 21 July 2013

अली सरदार जाफरी

मैं जहां तुम को बुलाता हूं वहां तक आओ
मेरी नज़रों से गुज़र कर दिल-ओ-जां तक आओ

आस्तीन ख़ून में तर, प्यार जताते हो मगर
क्या ग़ाब करते हो खंजर तो छुपाओ साहब

ये सारा खेल था जो वक्त के शातिर ने खेला था
न कुछ उसकी ख़ता निकली, न कुछ अपनी ख़ता निकली
(ख़ता = ग़लती)

अपनी बेबाक निगाहों में समाया न कोई
और वह हैं कि हर इक ताज़ा ख़ुदा से ख़ुश हैं

इस पे भूले हो कि हर दिल को कुचल डाला है
इस पे फूले हो कि हर गुल को मसल डाला है

गुफ़्तगू बंद न हो
बात से बात चले
सुब्ह तक शामे-मुलाकात चले
हम पे हंसती हुई ये तारों भरी रात चले

खु्दा करे कि सलामत रहें ये हाथ अपने
अता हुए हैं जो ज़ुल्फें संवारने के लिए
ज़मीं से नक़्श मिटाने को ज़ुल्मो-नफ़रत का
फ़लक से चांद-सितारे उतारने के लिए

ग़म का हीरा, दिल में रखो
किसको दिखाते फिरते हो
ये चोरों की दुनिया है


इन हाथों की ताज़ीम करो
इन हाथों को तकरीम करो
दुनिया को चलाने वाले हैं
इन हाथों को तस्लीम करो
(ताज़ीम = सम्मान, तकरीम = सत्कार, तस्लीम = स्वीकार)

तू मुझे इतने प्यार से मत देख
तेरी पलकों के नर्म साये में
धूप भी चांदनी सी लगती है

ताकि दुनिया पे खुले उनका फ़रेब-इंसाफ़
बेख़ता होके ख़ताओं की सज़ा मांगते हैं

अक्ल के नूर से दिल कीजिए अपना रौशन
दिल की राहों से सूए-मन्ज़िले-इंसां चलिए
(सूए-मंज़िले-इंसां= इंसां की मंज़िल की तरफ)

दिल पे जब होती है यादों की बारिश
सारे बीते हुए लम्हों के कमल खिलते हैं

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