मजरूह सुल्तानपुरी
जन्म: 1 अक्टूबर 1919
इंतकाल: 24 मई 2000
मशहूर शायर मजरूह सुल्तानपुरी की शायरी और फिल्मी नग्मों में जमीन से गहराई तक जुड़े उनके सरोकारों की छाप मिलती है। इसके अलावा, उन्होंने इश्क के तरानों को भी अपनी लेखनी से नए आयाम दिए हैं।
मैं अकेला ही चला था जानिबे-मंजिल मगर
लोग आते गए और कारवां बनता गया
मैं अकेला ही चला था जानिबे-मंजिल मगर
लोग आते गए और कारवां बनता गया
बचा लिया मुझे तूफां की मौज ने वर्ना
किनारे बाले सफीना मेरा डुबो देते (सफीना - नाव)
रहते थे कभी जिनके दिल में, हम जान से भी प्यारों की तरह
बैठे हैं उन्हीं के कूंचे में हम, आज गुनहगारों की तरह
दुनिया करे सवाल तो हम क्या जवाब दें,
तुमको ना हो ख्याल तो हम क्या जवाब दें ...
जफा के नाम पर तुम क्यों संभलकर बैठ गए,
तुम्हारी बात नहीं, बात है जमाने की। (जफा : जुल्म)
पहले सौ बार इधर और उधर देखा है
तब कहीं डर के तुम्हें एक नार देखा है
क्या ग़लत है जो मैं दीवाना हुआ, सच कहना
मेरे महबूब को तुम ने भी अगर देखा है
ये आग और नहीं दिल की आग है नादां
चिराग हो के न हो, जल बुझेंगे परवाने
शमा भी, उजाला भी मैं ही अपनी महफिल का
मैं ही अपनी मंजिल का राहबर भी, राही भी
मिली जब उनसे नार, बस रहा था एक जहां
हटी निगाह तो चारों तरफ थे वीराने
तकदीर का शिकवा बेमानी, जीना ही तुझे मंजूर नहीं
आप अपना मुकद्दर बन न सके इतना तो कोई मजबूर नहीं
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