Sunday, 21 July 2013

अल्ताफ़ हुसैन हाली

जहां में 'हाली' किसी पे अपने सिवा भरोसा न कीजिएगा
ये भेद है अपनी जिन्दगी का बस इसकी चर्चा न कीजिएगा

इसी में है खै़र हजरते-दिल,
कि यार भूला हुआ है हमको
करे वो याद इसकी भूल कर भी
कभी तमन्ना न कीजिएगा


हक़ वफ़ा का जो हम जताने लगे
आप कुछ कहके मुस्कराने लगे


डर है मेरी जुबान न खुल जाए
अब वो बातें बहुत बनाने लगे


है उल्फ़त भी वहशत भी दुनिया से लाज़िम
पै उल्फ़त ज़ियादा न वहशत जियादा
(उल्फ़तः चाहत, वहशतः जुनून)


मुसीबत का इक इक से अहवाल कहना
मुसीबत से है ये मुसीबत ज़ियादा
(अहवालः हालचाल)
.

फ़रिश्ते से बेहतर है इंसान बनना
मगर इसमें पड़ती है मेहनत जियादा

इश्क़ सुनते थे जिसे हम वो यही है शायद
ख़ुद-ब-ख़ुद, दिल में है इक शख़्स समाया जाता


है जुस्तजू कि ख़ूब से है ख़ूबतर कहां
अब ठहरती है देखिए जाकर नजर कहां
(जुस्तजूः तलाश, खूबतरः बेहतर से बेहतर)


हम जिस पे मर रहे हैं वो है बात ही कुछ और
आलम में तुझ से लाख सही, तू मगर कहां


होती नहीं क़ुबूल दुआ तर्के इश्क़ की
दिल चाहता न हो तो दुआ में असर कहां
(तर्के इश्कः प्रेम न करना)


उसके जाते ही ये क्या हो गई घर की सूरत
न वो दीवार की सूरत है, न दर की सूरत


क्यों बढ़ाते हो इख़तिलात बहुत
हमको ताक़त नहीं जुदाई की
(इख़तिलातः मेलजोल)


ज़िंदा फिरने की हवस है 'हाली'
इन्तहा है ये बेहयाई की
(इन्तहाः अति करना)

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