उर्दू की आधुनिक शायरी में फैज़ अहमद फैज़ की हैसियत एक बेमिसाल शायर की है। उनके कलाम बेहद मकबूल हुए। वामपंथी विचारों के समर्थक रहे फैज़ की कविता हकीकत के तीखे अहसास, बदलाव और प्रेम की जमीन पर उपजी है। उनका जन्म 13 फरवरी, 1911 को सियालकोट में हुआ था और इंतकाल 20 नवंबर (मंगलवार) 1984 को हुआ।
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हमने सब शेर में संवारे थे
हमसे जितने सुखन तुम्हारे थे (सुखनः बातचीत)
मरने के बाद भी मेरी आंखें खुली रहीं,
आदत जो पड़ गई थी तेरे इंतजार की
वो लोग बहुत खुशकिस्मत थे, जो इश्क को काम समझते थे
या काम से आशिकी करते थे, हम जीते जी मसरूफ रहे
कुछ इश्क किया, कुछ काम किया (मशरूफः व्यस्त)
दिल नाउम्मीद तो नहीं, नाकाम ही तो है
लंबी है गम की शाम, मगर शाम ही तो है।
जिंदगी क्या किसी मुफलिस की कबा है,
जिसमें हर घड़ी दर्द के पैबन्द लगे जाते हैं।
(मुफलिसः गरीब, कबाः लंबा चोगा)
आये तो यूं कि जैसे हमेशा थे मेहरबां,
भूले तो यूं कि जैसे कभी आश्ना न थे। (आश्नाः परिचित)
आदमियों से भरी है यह सारी दुनिया मगर,
आदमी को आदमी होता नहीं दस्तयाब। (दस्तयाबः उपलब्ध)
जो गुज़र गई हैं रातें, उन्हें फिर जगा के लाएं
जो बिसर गई हैं बातें, उन्हें याद में बुलाएं
चलो फिर से दिल लगाएं, चलो फिर से मुस्कराएं
बात बस से निकल चली है
दिल की हालत संभल चली है
अब जुनूं हद से बढ़ चला है
अब तबीयत बहल चली है
निसार मैं तेरी गलियों के ऐ वतन, कि जहां
चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले
हमसे जितने सुखन तुम्हारे थे (सुखनः बातचीत)
मरने के बाद भी मेरी आंखें खुली रहीं,
आदत जो पड़ गई थी तेरे इंतजार की
वो लोग बहुत खुशकिस्मत थे, जो इश्क को काम समझते थे
या काम से आशिकी करते थे, हम जीते जी मसरूफ रहे
कुछ इश्क किया, कुछ काम किया (मशरूफः व्यस्त)
दिल नाउम्मीद तो नहीं, नाकाम ही तो है
लंबी है गम की शाम, मगर शाम ही तो है।
जिंदगी क्या किसी मुफलिस की कबा है,
जिसमें हर घड़ी दर्द के पैबन्द लगे जाते हैं।
(मुफलिसः गरीब, कबाः लंबा चोगा)
आये तो यूं कि जैसे हमेशा थे मेहरबां,
भूले तो यूं कि जैसे कभी आश्ना न थे। (आश्नाः परिचित)
आदमियों से भरी है यह सारी दुनिया मगर,
आदमी को आदमी होता नहीं दस्तयाब। (दस्तयाबः उपलब्ध)
जो गुज़र गई हैं रातें, उन्हें फिर जगा के लाएं
जो बिसर गई हैं बातें, उन्हें याद में बुलाएं
चलो फिर से दिल लगाएं, चलो फिर से मुस्कराएं
बात बस से निकल चली है
दिल की हालत संभल चली है
अब जुनूं हद से बढ़ चला है
अब तबीयत बहल चली है
निसार मैं तेरी गलियों के ऐ वतन, कि जहां
चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले
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